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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/७३ टुकड़े करके ले आओ, जहाँ लकड़ी के टुकड़े करते हुए कोई न देखता हो। मैं इसी परीक्षा के आधार पर ही अपने उत्तराधिकारी का चयन करूँगा।" सब लकड़ी को तोड़ने के लिए तितर-बितर हो गये। कोई एकान्त कमरे में जाकर कोई कोने में जाकर, कोई एकदम शान्त एकान्त जगह जाकर लकड़ी को तोड़कर शीघ्र ले आये। सबने राजा को टुकड़े दिखा दिये; परन्तु उन सब में एक व्यक्ति नहीं लौटा था। उसे काफी देर हो गई थी, सूर्यास्त भी होने वाला था, पर वह न लौटा। सबने राजा से निवेदन किया – राजा साहब....आप शीघ्र ही उत्तराधिकारी की घोषणा करो। राजा ने कहा – अभी एक व्यक्ति आना शेष है। उसके आ जाने पर ही घोषणा करूँगा। तब सब कहने लगे कि वह आता तो कभी का आ जाता, अब वह आयेगा ही नहीं। आप तो घोषणा कर दो। राजा ने उनकी बात अस्वीकार कर दी और कहा – उसके आने पर ही घोषणा करूँगा। ऐसी चर्चा चल ही रही थी कि उसका आगमन हो गया। उसने राजा को वह लकड़ी बिना तोड़े ही ज्यों की त्यों वापिस थमा दी। सबने आश्चर्य करते हुए उसकी हँसी उड़ाई। यह इतनी-सी लकड़ी तो तोड़ न सका और राजा बनने चला है। राजा ने मन में यह निश्चय कर लिया था कि यही राजा बनने के योग्य है। फिर भी उसकी सच्ची परीक्षा के लिए तेज स्वर में कहा – जब तुम इतने समय में इतनी-सी लकड़ी नहीं तोड़ पाए तब तुम राज्य क्या सम्भालोगे ? ये देखो....ये सबके सब कितने बुद्धिमान हैं जो शीघ्र ही लकड़ी के दो टुकड़े करके ले आये। उस व्यक्ति ने अत्यन्त विनम्र शब्दों में कहा – हे राजा साहब... आपने यदि लकड़ी के दो टुकड़े ही करने कहे होते तो मैं उसी क्षण करके दे देता, पर आपने यह कहा था कि इस लकड़ी के दो टुकड़े ऐसी जगह जाकर करके लाओ जहाँ इसके टुकड़े करते हुए कोई भी न देखता हो। मैं अनेक गाँव, नगर, जंगल में गया, पर कोई भी ऐसा स्थान न मिला जहाँ उसको तोड़ते हुए कोई देखता न हो। जहाँ भी तोड़ता वहाँ कोई मनुष्य या पशु भले न देखता हो, परन्तु वहाँ मैं स्वयं व भगवान (सर्वज्ञ) तो देख ही रहे थे। फिर मैं कैसे तोड़ सकता था ? यह आप ही बताइये।
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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