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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/७२ उत्तराधिकारी की खोज बहुत समय पुरानी बात है, किसी राज्य में एक राजा राज्य करता था। वह राजा न्यायप्रिय, प्रजापालक, कर्तव्यनिष्ठ आदि अनेक गुणों से सम्पन्न था। उसकी ईश्वर के प्रति दृढ़ आस्था थी। वह प्रत्येक कार्य ईश्वर को साक्षी मान के करता था। उसकी मान्यता थी कि भगवान तीन लोक और तीन काल की समस्त बातें एक साथ एक समय में जानते हैं। यदि कदाचित् मैं कोई चोरी छुपे कार्य करूँगा तो उसे भगवान सर्वज्ञ होने से जान ही लेंगे, चाहे जनता न जान पाए। अतः वह नीतिपूर्वक ही राज्य करता। ऐसे योग्य राजा के दुर्भाग्य से कोई संतान न थी। वह चिन्तित था कि इस राज्य का उत्तराधिकारी किसे चुने। यदि वह किसी को भी उत्तराधिकारी बना दे और कदाचित् वह न्यायप्रिय, प्रजापालक और आस्तिक न हुआ तो समस्त जनता दु:खी हो जावेगी, वह स्वयं निन्दा का पात्र बन जायेगा। ऐसे विचारों से वह निरन्तर चिन्तित रहने लगा। वह वृद्ध भी हो चला था। उसे राज्य का भार भारी लगने लगा था। वह शीघ्र ही किसी को अपना उत्तराधिकारी बनाकर संन्यास लेना चाहता था। उसने मन्त्रियों से सलाह ली - किसे उत्तराधिकारी चुनें। किसी ने राजा के निकटतम सम्बन्धी को, किसी ने स्वयं को ही, किसी ने अपने पुत्र को, किसी ने अपने सम्बन्धी को राजा बनाने की बात कही। राजा को किसी की बात पसंद न आई। राजा इस समस्या का हल खोजने के लिए कुछ न कुछ विचार करता रहता था। आखिर उसे एक दिन इस समस्या का हल मिल ही गया। राजा ने अपने समस्त राज्य में घोषणा करा दी कि जो भी राजा बनना चाहता हो वह अपना नाम एक सप्ताह के अन्दर भेज दे। एक सप्ताह में सैंकड़ों उम्मीदवारों के नाम राजा के पास पहुँच गये। राजा ने उन सबको आमंत्रित किया। उन सबकी परीक्षा ली। राजा ने सबको आधे-आधे फुट की एकएक लकड़ी दे दी और कहा – “तुम ऐसी जगह जाकर इस लकड़ी के दो
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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