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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/६८ चामुण्डराय – फलस्वरूप आप इतनी सुंदर हृदयहारणी प्रतिमा का निर्माण कर सके हैं।
एलप्पा – जिनशासन का मूलमंत्र राग-द्वेष रहित शुद्धात्मा के समता परिणामों को आत्मसात् करने के सतत् आभास ने भगवत्ता को उत्कीर्ण करने में महती सहायता दी है।
चामुण्डराय – अति सुन्दर ! (अंजलि भर हीरे उन्हें देते हुए) पुरस्कार स्वरूप ये हीरे ग्रहण करें।
रामास्वामी – श्रीमान् ! परम पवित्र निरंजन निर्विकार वीतराग प्रभु के दर्शन कर आनंद सिंधु में अन्य समस्त साधे विसर्जित हो चुकी हैं।
चामुण्डराय - आर्य राधास्वामी ! सम्मान स्वरूप भेंट लेने में आपको आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
रामास्वामी – धृष्टता क्षमा करें महोदय !
चामुण्डराय -आर्य कन्नप्पा, एलप्पा, कृष्णास्वामी ! आप रामास्वामी के सहायक रहे हैं। आप यह भेंट स्वीकार करें।
कृष्णास्वामी – श्रीमान् ! 'हाथी के पांव में सबके पांव'। बन्धु रामास्वामी का निर्णय हम सबका निर्णय है।
कन्नप्पा - अब तो आप हमें सम्मति दें, ताकि हम भी अपने में विद्यमान प्रभुता प्रकट कर सकें।
एलप्पा - बन्धु कन्नप्पा ! जैसे इस वृहद् पाषाण में छिपी प्रतिमा की अभिव्यक्ति हुई है, वैसे ही शरीर के भीतर छुपी आत्मशक्ति को हमें व्यक्त कर लेना है।
चामुण्डराय - धन्य हैं एलप्पा ! जो आपने धर्म के मर्म को पहिचाना। जैनधर्म में आत्मोद्धार का मार्ग विश्व के समस्त प्राणियों के लिए उन्मुक्त है। (पण्डितजी से) पण्डितजी ! मस्तकाभिषेक की विधि प्रारंभ करें।
पण्डितजी - जी, बंधुओ ! माताओ ! सभी हमारे साथ महामंत्र णमोकार पढ़ेंगे। (पण्डितजी के साथ समवेत स्वर उभर आते हैं)