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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/६७ नेमिचन्द्र – हमें ऐसी ही आशा है। 'जे कम्मे शूरा, ते धम्मे शूरा'। चामुण्डराय - (खड़े होकर संबोधित करते हुए) मूर्ति के कुशल शिल्पियो ! एक बार आपसे और अंतिम निवेदन करना चाहता हूँ। शिल्पिगण ध्यान से सुनें। रामास्वामी – आदेश दें श्रीमान् ! हम सब प्रस्तुत हैं। चामुण्डराय - प्राण-प्रतिष्ठा के पूर्व एक बार और आप सब मूर्ति का भलीभाँति पुनर्निरीक्षण कर लें। अभी अवसर है मूर्ति की मनोज्ञता में कहीं अनावश्यक प्रस्तर बाधक हो तो उसे तराश कर प्रस्तर की तौल के हीरे भेंट स्वरूप ग्रहण करें। रामास्वामी - राजन् ! मूर्ति निर्माण कार्य में आपने पारिश्रमिक के रूप में रजत मुद्राओं से लेकर स्वर्ण जवाहरात तक लुटाएँ हैं। हमने मनों द्रव्य प्राप्त किया है, रत्न झोली भर-भर पाए हैं। अब आप हीरे तो क्या अपना राज्य भी दें तो भी मूर्ति में तराशने की तनिक भी संभावना नहीं है। एलप्पा – माननीय महोदय ! बंधु रामास्वामी का कथन सर्वथा सत्य है। अब मूर्ति पर छैनी चलाना कला का अपमान किंवा स्वयं अपनी आत्मा का अनादर करना है। कन्नप्पा – हमारा परम सौभाग्य है जो हमें देवाधिदेव परम वीतराग प्रभु की मूर्ति गढ़ने का कार्य मिला। हम सब गढ़ाई में ऐसे तन्मय हो जाते थे कि भोजन-पान की भी सुधि नहीं आती थी। कृष्णास्वामी – सच बात तो यह है कि आंशिक वीतरागता हममें भी जाग गई है। अब परिवार संपत्ति आदि में रस नहीं आता। चामुण्डराय - आपके विचार अत्युत्तम हैं शिल्पिकारो ! हम आप सबको साधुवाद देते हैं। रामास्वामी – यह श्रेय आपको ही है महानुभाव ! आपने भगवान बाहुबली का जीवन परिचय दिया कि वे मोह-ममता की डोर तोड़ सन्यस्त हो गए। उनकी यह निस्पृहता हमारे अंतस्तल को छू गई। हम आत्मविभोर हो गए।
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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