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________________ - जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/५१ लोगों ने कुछ भी नहीं सीखा। घृणित अत्याचार, बेईमानी, विश्वासघात व कायरता ही उनके राज्य की आधार शिला है। साम्राज्य-लिप्सा ने उन्हें विवेक-हीन अंधा बना दिया है। यदि उनकी चाल में फंस गए तो दोनों तरफ ये पिट जायेंगे। मेरे साथ चमनलालजी को फाँसी लगेगी ही और राज्य भी दुश्मनों के हाथ में चला जायगा। झूथाराम – पर भैया, आप जैसे नर-रत्न को खोकर राज्य की रक्षा करना तुच्छता है। अमरचंद - (दृढता से) नहीं, मनुष्य तो संसार में आते-जाते बने ही रहते हैं। एक के पीछे अनेकों प्राणियों का अकल्याण न करो। निरंकुश अत्याचारी शासन से प्रजा की रक्षा करनी होगी। महामंत्री ! ममता के रेशमी बंधन से मुक्त होकर कर्त्तव्य की ओर ध्यान दें। मेरी विनम्र विनय है।... बड़े भाई, आप तो राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हैं। आप ही बताइये कि क्या मेरे बच जाने से जयपुर राज्य की रक्षा हो सकेगी? फिरंगियों के दांत इस राज्य पर इतने गहरे गड़े हैं कि उन्हें उखाड़ने के लिए गुरुतर हथौड़े की आवश्यकता है। स्मिथ छावनी के माने हुये पुराने अफसर थे। शतरंज पर आड़े सीधे यही मोहरा दौड़ रहा था। राज्य का दुर्भाग्य कि हम इसी मोहरे को पीट गए। अब पछताने से कुछ हाथ आयेगा नहीं। अब हमारे सामने दो ही रास्ते हैं। या तो मेरे लोभ में बिसात शत्रु को सौंप दें या वजीर पिटवाकर हारी बाजी जीत लें। पैदल को आगे किया तो वह भी पिट जायगा और बिसात भी हमारी मात में उलट जायगी। चमनलाल – दीवानजी, आप जैसे महान् पवित्रात्मा मेरे ही कारण शूली पर चढ़ेंगे। (जोर से रो पड़ते हैं।) अमरचंद - चमनलालजी, आप केवल निमित्त मात्र हैं। आप अपने को प्रकट कर अंतकरण शुद्ध कर चुके हैं। सच्चे हृदय से किया हुआ पश्चाताप अनेकों पाप भस्म कर देता है। सब जीवों पर दया भाव रख आनन्द से जीवनयापन करिये। आपकी गृहस्थी अभी कच्ची है। भवितव्यता दुर्निवार है। इसमें 'क्यों' और 'कैसे' का प्रश्न ही नहीं उठता।
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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