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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग -‍ - १८/५० अमरचंद - बंधु, संसार न्याय की भित्ति पर आधारित नहीं रह सकता, उसे नीति का आश्रय लेना ही होगा। झूथाराम - ठीक है, पर आपने तनिक यह भी विचारने का प्रयास किया कि आपका अभाव राज्य की प्रजा पर क्या प्रभाव डालेगा ? आपके सहारे अनेकों प्राणी जीवन पाते थे। दीनबंधु के बिना उन सबकी सुधि कौन रखेगा ? (गहरा उच्छवास ले) घोर वज्रपात हो जायगा । (अत्यन्त दीनता से) भैया, अपने लिए नहीं, तो उनके लिए, अपनी प्यारी प्रजा के लिए तुम्हें जीवित रहना होगा । अमरचंद - भैया, ममता आपको बार-बार भुलावा दे रही है। आप भूल गये कि प्रत्येक प्राणी अपने जीवन-मरण, सुख-दुख का स्वयं स्वामी है । मैं रक्षा करने वाला कौन? यह नितांत भ्रम है। - चमनलाल ( रुदन करते हुये उठकर) दीवानजी, मैं नीच पापी हूँ । मेरे ही कारण राज्य का सूर्य अस्त हो जायगा। यह मैं नहीं सह सकता। मैं जीविंत रह कर धरती का भार ही बना रहूँगा ।.... आपने जीवन भर दान दिया है । अन्तिम बार मुझ भिखारी की झोली भर दीजिये दीवानजी ( कुर्ता फैलाकर) भिक्षा माँग रहा हूँ। अमरचंद - (कुर्ता नीचे करते हुये ) चमनलालजी, ऐसी बातें आपके मुँह से अच्छी नहीं लगती। भला क्या चाहते हैं आप ? चमनलाल - आप जिस पर बैठे हैं वह स्थान चाहिए । इसकी योग्यता आप में नहीं, मुझमें है। आपकी यह अनधिकार चेष्टा है । ... मैं बैठूंगा यहाँ, आप जाइये। अमरचंद - पर भाई, ये मेरे और तुम्हारे हाथ की बात नहीं । अब मेरा जीवन फिरंगियों के हाथ में है। फतेहलाल - एजेन्ट ने वचन दिया है पिताजी, कि असली खूनी को सौंप देने पर आपको तुरन्त छोड़ देंगे । अमरचंद - बेटा, ये उनकी चालें हैं। झूठ बोलने के अतिरिक्त उन
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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