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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/४६ तुम उन्हें सूचित करो कि जयपुर राज्य ने अपनी क्षमता से कहीं अधिक मूल्य दिया है। दरवान – जी, (पुन: अन्दर जाता है और बाहर आकर) चलिये, आपको याद किया है। (तीनों के मुख अपनी सफलता पर खिल उठते हैं।) एजेन्ट और उसके पूर्व परिचित अन्य दो साथी बैठे हैं। इन तीनों के जाते ही एजेन्ट (तपाक से उठ कर झूथारामजी से हाथ मिलाते हुये) हलोहलो डीवान साहब ! तशरीफ रखिये। (सब कुर्सियों पर बैठ जाते हैं) यहाँ किस कारण से आया है आप लोग ? झूथाराम - (नम्रता से) हम अमरचन्दजी से भेंट करना चाहते हैं। एजेन्ट – नेई-नेई, ये कैसे हो सकटा हय? खूनी मुजरिम को अम कोई कन्वीनियन्स (सुविधा) नेई डेना सकटा। झूथाराम – परन्तु साहब, मैं आपकी सरकार के हित की ही कह रहा हूँ। आप मेरी बात न मानकर घाटे का सौदा कर रहे हैं। एजेन्ट - घाटे का सौडा। आपका मटलब अमारी समझ में नेई आया। झूथाराम – बात सरल है साहब ! अमरचन्द जो मुजरिम नहीं हैं, यथार्थतः मुजरिम दूसरा है। आपने उनको गिरफ्तार कर गलत कदम उठाया है। एजेन्ट – तुम सच बोलता हय। . . झूथाराम - और क्या झूठ ? एजेन्ट – टो बटाओ वह असली मुजरिम कहाँ हय। अम गिरफ्तार कर कड़ी सजा देगा। अम तो पहिले बोलटा था कि अमरचन्द हत्या नेई कर सकटा। झूथाराम – मुजरिम हाथ में है, परन्तु दीवानजी से मिले बिना हम बतलाने में असमर्थ हैं।
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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