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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/४५ किया है ? निश्चय ही अमर भैया छूट जायेंगे। (चमनलाल की पीठ ठोक कर) तुम धीर हो, साहसी हो चमनलालजी। तुम्हारी राजभक्ति सराहनीय है। तुमने अपराध स्वीकार कर दृढ़ता का परिचय दिया है। प्रजा के हृदय सम्राट को बचाकर तुम महान् उपकार कर रहे हो। अतः प्रजा युग-युग तक तुम्हारे प्रति चिर अनुग्रहीत रहेगी, राज्य की ओर से कुटुम्ब की रक्षार्थ जागीर बांध दी जाय...............। चमनलाल - (बात काटकर अनुताप भरे विगलित स्वर से) जागीर नहीं चाहिये दीवानजी। मुझे शीघ्र ही सांगानेर ले चलिये, विलम्ब घातक सिद्ध हो सकता है। झूथाराम - विलम्ब कुछ भी नहीं है। हम अभी रातों-रात चलकर प्रात: सांगानेर पहुँच जायेंगे। बहली निकालवा लूँ। फतेहलाल - बहली बाहर प्रस्तुत है ताऊजी, हम उसी में आये हैं। झूथाराम – तब फिर चलो। मार्ग में राजा साहब को सूचित करते हुये चले चलेंगे। (पगड़ी पहन लेते हैं।) _दृश्य पंचम (सांगानेर, अंग्रजों की छावनी) समय - प्रात:काल प्रथम पहर के पश्चात् (कमरा अंग्रजी ढंग से सजा हुआ है। द्वार पर दरवान खड़ा है। उसके कंधे पर बन्दूक है। उपर्युक्त तीनों व्याक्ति वहाँ आते हैं।) __झूथाराम - (दरवान से) एजेन्ट साहब से जाकर कहो कि जयपुर से बड़े दीवान आपसे मिलना चाहते हैं। दरवान - जी, (अन्दर जाता है पुनः आकर) उन्हें अवकाश नहीं है। झूथाराम - (व्यंग्य से) अवकाश नहीं है। क्यों ? क्या शतरंज की बाजी पर मात खा गये जो मिलने से कतरा रहे हैं। (दृढ़ एवं गम्भीर हो) दरवान!
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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