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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/३४ अमरचन्द - चिंता तो उचित हैं, अनुचित जो हो गया है । परन्तु आपकी सुलझी हुई प्रखर बुद्धि पर संपूर्ण राज्य को पूर्ण विश्वास है। (प्रायश्चित के स्वर में) क्या बताऊँ भैया ! मुझसे भूल हो गई। मैंने आदमी साथ में जाने को कहा, वे न माने और मैं मान गया । मेरा मानना ही भूल बन गई। किसी को साथ कर दिया होता । झूथाराम - होनहार को किसने मेटा है, भाई ! ऐसा ही होना होगा, अन्यथा कैसे हो सकता है ? अमरचन्द - ( उदास से ) हाँ.... पर मैं कर्तव्य से चूक गया । ( डबडबाई आँखों से) थे बड़े अच्छे आदमी कप्तान स्मिथ । नये-नये प्रयोग करने में ऐसा साहस रखने वाले सैकड़ों वर्षों में कोई विरले ही होते हैं। (बहते हुए आँसू पोंछते हैं परन्तु आँसू हैं कि रुकने का नाम नहीं लेते। भर्राये गले से) अभीअभी उन्होंने मुक्त हास्य के मध्य मुझसे कहा था 'एक्सपेरीमेंट ही सही' । हाय उनका वह एक्सपेरीमेंट ही हो गया । उफ ! कैसा नृशंस घृणित कार्य हो गया मेरी अदूरदर्शिता से । गलती मुझसे हुई है बड़े भाई और पश्चात्ताप भी मुझे ही करना होगा। इससे राज्य का बड़ा भारी अकल्याण हो सकता है। आप शीघ्रातिशीघ्र चारों ओर समुचित प्रबन्ध कर लें ताकि शहर में शान्ति बनी रहे । राज्य का उत्तरदायित्व आपके कंधों पर है। झूथाराम - ( हाथ जोड़कर) अच्छा मैं चलता हूँ। देखूँ वहाँ कुछ सुराख लगा क्या ? अमरचन्द – (परम शान्ति से) बेटा, रात्रि काफी हो गई है। जाओ तुम सो जाओ। फतेहलाल - आप भी आराम करिये पिताजी ! अमरचन्द – हाँ, हाँ मैं भी सो रहा हूँ । ( फतेहलाल का जाना) (अमरचन्द जी उठकर शयनगृह में आते हैं, दरबारी पोशाक उतार कर सादे कपड़े पहनते हैं और प्रभु स्मरण कर बिछी हुई शैय्या पर सो जाते हैं। शीघ्र ही निद्रा उनकी पलकों में समा जाती हैं। अभी-अभी
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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