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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/२७ हो रहा है ऐसे इस अजितसेन ने इस विद्याधरी को जबरजस्ती विकार पैदा करने का प्रयत्न किया। “पूर्व जन्म के संस्कार से इस लोक में भी जीवों का स्नेह, बैर, गुण, दोष, राग-द्वेष आदि सब चले आते है"- ऐसा समझकर बुद्धिमान पुरुष शत्रुओं के लिये भी कभी विषाद नहीं करते। अतः तू भी बैरभाव को छोड़ दे। राजा वज्रायुध के मुख से अपने पूर्वभव का वृतान्त सुनकर वह शान्तिमति विद्याधरी संसार से उदास हो गई। उसने अपना विवाह न करके पिता आदि परिवार को त्याग कर देवों द्वारा पूज्य ऐसे क्षेमंकर तीर्थंकर के समीप जाकर जिनेन्द्रदेव की तीन प्रदक्षिणा की तथा नमस्कार कर धर्मामृत का पान करने के लिये सभा में जा बैठी। उसने अपने कानों द्वारा जन्ममरण तथा वृद्धापन के दाह को दूर करने वाला, आत्मरस प्रगट करने वाला तथा मुनियों के भी समझने योग्य उन तीर्थंकर के मुखरूपी चन्द्र से झरते धर्मामृतरूपी उत्तमरस का पान किया। तत्पश्चात् वह सुलक्षणा नाम की गुणशालिनी श्रेष्ठ आर्यिका के समीप पहुँची और भव के अभाव करने वाला चारित्र धारण किया। उस शान्तिमति विद्याधरी ने एक साड़ी के सिवाय अन्य समस्त बाह्य परिग्रह का त्याग किया तथा मिथ्यात्व आदि अन्तरंग परिग्रह का त्याग किया। संवेग गुण से सुख के सागर समान कठिन तपस्या की और शास्त्रों का अभ्यास करके सम्यग्दर्शन की विशुद्धि धारण की, अन्त में चार प्रकार का सन्यास धारण किया। एकाग्रचित्त से भगवान श्री जिनेन्द्रदेव का स्मरण किया, भावनाओं का चिन्तवन किया तथा समाधिपूर्वक प्राणों का त्याग करके सम्यग्दर्शन के प्रभाव से स्त्रीलिंग का छेद करके ईशान स्वर्ग में महाऋद्धि को धारण करने वाला देव हुई। __ वह देव अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव जानकर मुनि तथा जिनप्रतिमा की पूजा करने के लिए पृथ्वी पर आया। उसीसमय उसने मुनिराज अजितसेन (शान्तिमति को विद्यासिद्धि में विघ्न करता था वह) और वायुवेग (शान्तिमति के पिता) के दर्शन किये। जो अतिशय वैराग्य के कारण घर का त्याग करके
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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