SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/२६ के समान है। यह पापिनी मनुष्यों का भक्षण करने के लिये दृष्टिविष सर्पिनी के समान है। मूर्ख जीव स्त्रियों के समागम से व्यर्थ ही प्रतिदिन अनेक पापों का उपार्जन करते हैं। संसार में कितने पुण्यवान् पुरुष ऐसे हैं कि जो अपनी स्त्री को छोड़कर संयम धारण करते हैं, परन्तु मेरे जैसा नीच कौन होगा जो . परस्त्री को चाहता है? इस प्रकार अपनी निन्दा करके उसने पूर्वोपार्जित पापों को नष्ट किया और पापरूपी वन को जलाने के लिये अग्नि समान संवेग को बलवान किया। तत्पश्चात् चारित्र धारण करने की इच्छा करता हुआ वह राजपुत्र नलिनकेतु उस स्त्री तथा राज्य भोगों को छोड़कर सीमंकर मुनि के पास पहुँचा। उसने दुःखरूपी दावानल को बुझाने के लिये वर्षा समान उन मुनिराज के दोनों चरण युगल को नमस्कार किया बाह्याभ्यन्तर परिग्रह को छोड़कर दीक्षा धारण करने पर उसका संवेग गुण बहुत बढ गया, इस कारण उसने घोर तपश्चर्या की तथा समस्त तत्त्वों से परिपूर्ण आगम का बहुत अभ्यास किया। नलिनकेतु मुनिराज ने क्षपक श्रेणी पर आरूढ होकर प्रथकत्व-वितर्क नामक शुक्लध्यानरूपी तलवार से दुष्ट कषायरूपी शत्रुओं को मारकर तीन वेदों को नष्ट किया। दूसरे शुक्ल-ध्यानरूपी वज्र से शेष घातिकर्मरूपी पर्वत को चूर-चूर कर दिया और साक्षात् केवलज्ञान प्रगट किया। उसी समय इन्द्रों आदि ने आकर उनकी पूजा की और सुख के सागर जिनराज ने अघातिकर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट कर शाश्वत् मोक्षपद प्राप्त कर लिया। . प्रीतिकरा ने भी अपने दुराचार की निन्दा की और मोक्ष की प्राप्ति के लिये संवेग धारण करके सुव्रता नामक आर्यिका के समीप जा पहुँची। उसने घर सम्बन्धी समस्त परिग्रह का त्याग करके संयम धारण किया तथा कर्मरूपी तृण को जलाने वाली अग्नि को शुद्ध करने लिये चन्द्रायण तप किया। अन्त में संन्यास धारण करके विधिपूर्वक प्राणों का त्याग किया, इस पुण्य से वह अनेक सुख तथा गुण के समुद्र ऐसे ईशान सवर्ग में उत्पन्न होकर वहाँ के दिव्य भोग भोगते हुए आयु पूर्ण करके वहाँ से चयकर शुभकर्म के उदय से अब तेरी पुत्री हुई है। अतः पूर्व जन्म के स्नेह से जिसका मन राग से अन्धा
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy