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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/१८ जानकर परद्रव्य के ग्रहण करने के भाव से स्वयं ही सुख-दुःख की कल्पना करता रहता है। वास्तव में तो अपना आत्मा सुख से ही बना हुआ है, उसमें सुख कहीं बाहर से नहीं लाना है, बल्कि उस सुख को स्वीकार करना ही एक मात्र जीव का कर्तव्य है।" पूर्वकथित व्यन्तरी, देवदत्ता वैश्या, दासी और उपस्थित जनता केवली भगवान सुदर्शन का धर्मोपदेश सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए। कितने ही जीवों ने भक्ति से श्रावक के व्रत धारण किये, कितने ही जीवों ने सम्यक्त्व धारण किया और कितने ही जीवों ने संसार से विरागी होकर समस्त परिग्रह छोड़कर मुनिदीक्षा अंगीकार की। केवली भगवान सुदर्शनस्वामी ने देशान्तर में विहार करके धर्मोपदेश दिया और अन्त में समस्त कर्मों का नाश करके गुलजार बाग पटना से मोक्ष पधारे। ____ - इसप्रकार सुदर्शन मुनिराज, जो पूर्वभव में सुभग ग्वाला थे, वे पंच नमस्कार मंत्र को स्मरण करते हुए मरण कर सेठ सुदर्शन हुए और इस भव में अपने प्रबल पुरुषार्थ से कर्मों का नाशकर अनन्त-अव्याबाध-सुखस्वरूप शास्वत सिद्धपद को प्राप्त हुए। उन्हें हमारा भक्ति-भाव पूर्वक बारम्बार नमस्कार हो। . - बोधि समाधि निधान से साभार जैसे मुट्ठी द्वारा आकाश पर प्रहार करना निरर्थक है। जैसे चावलों के लिए छिलकों को कूटना निरर्थक है। जैसे तेल के लिए रेत को पेलना निरर्थक है। जैसे घी के लिए जल को बिलौना निरर्थक है। केवल महान खेद का कारण है। उसीप्रकार असाता वेदनीय आदि अशुभ कर्म का उदय आने पर विलाप करना, रोना, क्लेशित होना, दीन वचन बोलना निरर्थक है- दु:ख मिटाने में समर्थ नहीं है। परन्तु वर्तमान में दुःख ही बढ़ाते हैं। और भविष्य में तिर्यञ्चगति तथा नरक-निगोद के कारणभूत तीव्रकर्म बाँधते हैं। जो अनंतकाल में भी नहीं छूटते। - श्री भगवती आराधना, आचार्य शिवकोटि
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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