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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १८/१७ जिस मानव आत्मा के कारण मैं नष्ट हुई, उस साधु को तो देख ! दासी की बात सुनकर देवदत्ता कहने लगी कि पण्डिता, महादेवी और कपिल में से कोई भी कामशास्त्र की विशेषज्ञ नहीं थी, न कामकला विशारद थी और न मनुष्य के मन की पारखी थी; तू देख, मैं अभी तुरन्त ही इस मुनि के चित्त को मोहित करती हूँ । इसप्रकार दासी से कहकर देवदत्ता ने मुनिराज का पड़गाहन किया और उन्हें अपने घन ले गई, जब मुनिराज ने देवदत्ता के घर में प्रवेश किया, तभी उसने तुरन्त ही दरवाजा बन्द कर दिया और तीन दिन तक मुनिराज पर भंयकर उपसर्ग किया; परन्तु इस समय मुनिराज ने अपने मन को इतना आत्मसन्मुख कर लिया कि जिससे वे लकड़ी अथवा पत्थर के समान निश्चल हो गये । उस समय देवदत्ता ने अपने सैकड़ों हाव-भाव, चेष्टा से विकार बताया, परन्तु सुदर्शन मुनि का चित्त जरा भी मोहित नहीं हुआ । जब देवदत्ता ने देखा कि मुनिराज इतने हाव-भाव दिखाने पर भी इतने स्थिरचित्त, गम्भीर और दृढ़ रहे हैं- यह जानकर उसको बहुत भय हुआ तो वह अपने दूषित अभिप्राय की निन्दा करने लगी और रात्रि होते ही मुनिराज को श्मशान में छोड़ आई और अपना काला मुँह लेकर वापस घर आ गई। सुदर्शन मुनि जैसे ही भयंकर श्मशान भूमि में पहुँचे, उन्होंने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया, रात्रि में कायोत्सर्ग करके स्थिर हो गये । वहाँ रानी का जीव जो मरकर व्यंतरी हुआ था, उसने सुदर्शन मुनि को पहिचान लिया और लगातार सात दिन तक उनके ऊपर भयंकर उपसर्ग किया। सात दिन पश्चात् मुनिराज ने क्षपकश्रेणी आरोहणकर घातिकर्मों का क्षय किया और समस्त पदार्थों को साक्षात् करनेवाला केवलज्ञान प्रगट किया । केवलज्ञान प्रगट होते ही देवों का समूह स्तुति - वंदना करने के लिये आने लगा। तब वैश्या देवदत्ता, दासी, व्यंतरी और समस्त नगरवासी जनता अत्यन्त भक्ति से केवली के पास आये और केवली भगवान सुदर्शन का धर्मोपदेश होने लगा - कि " जो मानव शरीर पाकर धर्म नहीं करता, वह निधि पाकर भी अन्धा है। जगत् में जीव अपने सुखस्वभावी आत्मा को न
SR No.032267
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 18
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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