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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१८/१० आराधना करता। इसप्रकार वह मंत्र उसके रोम-रोम में समा गया। एक दिन सेठ वृषभदत्त ने ग्वाले को मंत्र बोलते हुए सुन लिया। मंत्र प्राप्ति के विषय में सेठजी ग्वाले से पूछने लगे। ग्वाले ने मुनिराज के पास से मंत्र प्राप्ति का सम्पूर्ण वृतांत उन्हें कह सुनाया। सेठ वृषभदत्त ने प्रसन्न होकर कहा कि तेरा जीवन धन्य है ! तेरा अहो भाग्य है कि जिनकी पूजा त्रिभुवन में होती है, तुझे ऐसे मुनिराज के दर्शन हुए।
उस ग्वाले के जीवन में एक दिन फिर एक घटना बनी। उस ग्वाले की गायें नदी पार करने लगीं, ग्वाला भी पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण करके नदी में कूद पड़ा। वर्षा के कारण नदी भरपूर जल से भरी थी। दुर्भाग्य कहो या संयोग, उसके नदी में कूदते ही एक नुकीली लकड़ी ग्वाले के पेट में घुस गई, जिससे उसका पेट फट गया और उसकी मृत्यु हो गई। यद्यपि वह पवित्र मंत्र के प्रभाव से स्वर्ग में जाता; परन्तु निदानबंध के कारण सेठ वृषभदत्त के यहाँ पुत्र हुआ, जिसके होने पर सेठ वृषभदत्त की बहुत उन्नति हुई; उसकी प्रतिष्ठा, धन, वैभव तथा सम्पत्ति में बहुत वृद्धि हुई। उसका नाम सुदर्शन रखा गया।
उसी नगरी में सागरदत्त नाम का एक अन्य सेठ रहता था। उसकी स्त्री का नाम सागरसेना था। उसकी मनोरमा नाम की एक सुन्दर पुत्री थी। सुदर्शन के युवा होने पर मनोरमा के साथ सुदर्शन का विवाह हुआ। अब सुदर्शन ने गृहस्थ जीवन में प्रवेश किया। वह युगल जोड़ी आनन्द से जीवन व्यतीत करने लगी।
एक दिन सेठ वृषभदत्त को समाधिगुप्त नामक मुनिराज के दर्शनों का लाभ प्राप्त हुआ, वे मुनिराज के उपदेश से इतने प्रभावित हुए कि समस्त धन, वैभव, परिग्रह को छोड़कर दिगम्बर दीक्षा धारण कर मुनि हो गये। अब सुदर्शन पर घर-गृहस्थी और परिवार का सम्पूर्ण भार आ पड़ा। सुदर्शन की प्रसिद्धि होने लगी। राज-दरबार, सर्व साधारण सभी उन्हें सेठ सुदर्शन के रूप में जानने लगे। उनकी ईमानदारी व सज्जनता की चर्चा गली-गली में होने लगी। सुदर्शन भी कुशलतापूर्वक सांसारिक कार्यों का निर्वाह करते हुए