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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - 17/71
उसने बारम्बार मुनिराज की वन्दना की । मुनिराज तो आकाश मार्ग से विहार कर गये और गृहस्थाश्रम से अत्यन्त विरक्त उस राजा इन्द्र ने संसार, शरीर एवं भोगों को असार जानकर, धर्म में निश्चल बुद्धि से अपनी अज्ञान चेष्टा की निन्दा करते हुए अपनी राज्यविभूति पुत्र को देकर अपने अनेक पुत्रों, राजाओं और लोकपालों सहित सर्व कर्मों की नाशक जैनेश्वरी दीक्षा अंगीकार करली |
सर्व परिग्रहों का त्याग करके, निर्मल चित्त वाले उसने पहले जैसे शरीर को भोगों में लगाया था, वैसा ही तप करने में लगाया - ऐसा तप अन्य से नहीं हो सकता। महापुरुषों की शक्ति बहुत होती है। वह जैसे भोगों में प्रवर्तते हैं, वैसे ही विशुद्धभाव में भी प्रवर्तते हैं। इस प्रकार राजा इन्द्र ने मुनि बनकर बहुत काल तक तप किया और अंत में शुक्लध्यान के प्रताप से कर्मों का क्षय करके निर्वाणपद प्राप्त कर अनन्तसुखी हो गये ।
अन्त में गौतमस्वामी राजा श्रेणिक से कहते हैं कि देखो ! जो महापुरुष होते हैं, उनका चरित्र आश्चर्यकारी होता है । वे प्रबल पराक्रम के धारक बहुत काल तक भोग भोगकर भी संसार में फसते नहीं हैं और अन्त में वैराग्य लेकर अविनाशी सुख भोगते हैं, वे समस्त परिग्रह का त्याग करके क्षणमात्र में ध्यान के बल से महान पापों का क्षय करते हैं, जैसे बहुत काल से ईंधन की राशि का संचय किया हो, वह क्षणमात्र में अग्नि के संयोग से भस्म हो जाती है। ऐसा जानकर हे प्राणी ! आत्मकल्याण का प्रयत्न करो ! अन्तःकरण विशुद्ध करो ! मरण होने पर इस पर्याय का अन्त निश्चित है, अतः ज्ञानरूप सूर्य के प्रकाश से अज्ञानरूप अंधकार को दूर करो ।
- पद्मपुराण पर आधारित
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नवनिधि, चौदह रत्न, घोड़े, मस्त उत्तम हाथी, चतुरंगिनी सेना इत्यादि सामग्री भी चक्रवर्ती को शरणरूप नहीं है। उसका अपार वैभव भी उसे मृत्यु से नहीं बचा सकता। जन्म-जरा-मरण-रोग और भय से अपनी आत्मा ही अपनी रक्षा करती है ।
- कुन्दकुन्दाचार्य : बारह भावना