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________________ . .. .जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/68 . इस प्रकार इन्द्र विचार कर ही रहा था कि उसी समय निर्वाणसंगम नामक चारण मुनि विहार करते हुए आकाश मार्ग से जा रहे थे। चैत्यालय के कारण उनका आगे गमन नहीं हो सका, अत: उन्होंने नीचे उतरकर भगवान के प्रतिबिम्बों के दर्शन किये। मुनिराज चार ज्ञान धारी थे। अत: वे मुनिराज राजा इन्द्र के मन की बातों को जान गये और उन्होंने उसे पात्र जानकर इसप्रकार समाधान किया कि “हे इन्द्र ! जो रहट का एक घड़ा भरा होता है वह खाली होता है और जो खाली है वह भरता है; उसी प्रकार इस संसार की यात्रा क्षणभंगुर है, यह बदल जाये इसमें आश्यर्च नहीं है।" ___मुनि के मुख से उपदेश सुनकर इन्द्र ने अपने पूर्वभव पूछे। तब अनेक गुणों से सुशोभित मुनिराज ने कहा- हे राजन् ! अनादिकाल का यह जीव चार गतियों में परिभ्रमण करता हुआ जो अनन्तभव यह धारण करता है, वे तो केवलज्ञान गम्य हैं; परन्तु मैं तुम्हारे कुछ भवों का कथन करता हूँ, जिसे सुनकर तुम्हें संसार की विचित्रता का स्वरूप ख्याल में आयेगा और बोध प्राप्त होगा। शिखापद नामक नगर में एक स्त्री अत्यन्त गरीब थी। उसका नाम कुलवंती था। उसकी आँखें धसी हुईं, नाम चपटी, शरीर में अनके व्याधियाँ ऐसी वह पापकर्म के उदय से लोगों की जूठन खाकर जीवित थी। उसके अंग कुरूप, वस्त्र मेले-फटे एवं बाल रूखे थे। वह जहाँ जाती लोग अनादर करते, उसे कहीं सुख नहीं मिलता। जीवन के अन्तकाल में उसे सुबुद्धि उत्पन्न हुई और उसने एक मुहुर्त का अनशन व्रत ले लिया। वह प्राण तजकर किंपुरुष देव की शीलधरा नाम की दासी हुई। वहाँ से चयकर रत्ननगर में गौमुख नामक कणबी की धरणी नामक की स्त्री के गर्भ से सहस्रभाग नामक पुत्ररूप में उत्पन्न हुई। वहाँ उसने सम्यक्त्व पूर्वक श्रावक के व्रत अंगीकार किये और मरकर शुक्र नामक नौवे स्वर्ग में उत्तम देव का जन्म धारण किया। वहाँ से चयकर महाविदेहक्षेत्र के रत्नसंचय नगर में मणी नाम के मंत्री की गुणावली नाम की स्त्री से सामंतवर्द्धन नामक
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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