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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/58 सही, संयम धारण कर लिया । जैसे कन्दमूल को खोजते खोजते निधि का लाभ हो जाय, वैसे ख्याति, लाभ, पूजा के लोभ से मुझे यह जैनेश्वरी दीक्षा का लाभ मिल गया । 'परमोपकारी, जीवमात्र के हितवांछक, ज्ञान की आराधनारूप भला उपाय जानकर श्री सुधर्माचार्य गुरुदेव ने मुझे भगवती जिनदीक्षा दी, जो समस्त जगत की हितकारिणी है । इस दीक्षा से मैं कृतकृत्य हो मोक्षमार्गी बन गया । ' 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकतारूप जो बोध, उसे मैंने महान भाग्य से जिनशासन में पाया । अनन्तगुणों के सिंधु, भुक्ति, मुक्तिदायक निर्दोष अरहन्तदेव, अपार एवं दुस्तर संसार समुद्र से भव्यजीवों को तारने वाले ऐसे निर्ग्रथ गुरु मैंने महान पुण्योदय से पाये हैं। ये निर्ग्रथ गुरु धर्मबुद्धि के धारक हैं। मैं इस संसार में कुमार्गदाता, संक्लेशमय, मिथ्यामार्ग - संध्या तर्पणादि कार्य करके व्यर्थ ही खेदखिन्न हुआ । मैं मिथ्यादृष्टि जीवों एवं जिनधर्म से पराङ्मुख देवों द्वारा ठगा गया । महापुण्योदय से अतिदुर्लभ जिनशासन को पाकर आज मैं धन्य हो गया। आज ही मैंने मोक्षमार्ग में गमन किया । जैसे - ज्योतिषी देवों में सूर्य श्रेष्ठ है, धातुओं में पारा, पाषाण में सुवर्ण पाषाण, मणियों में चिन्तामणि, वृक्षों में कल्पवृक्ष, स्त्री-पुरुषों में शीलवान : स्त्री-पुरुष, धनवानों में दातार, तपस्वियों में जितेन्द्रिय पुरुष और पण्डितों ज्ञानी श्रेष्ठ हैं। वैसे ही समस्त धर्मों में जिनेन्द्र देव द्वारा भाषित दया एवं वीतरागमयी धर्म ही श्रेष्ठ है । समस्त मार्गों में जिनेन्द्रदेव का निर्ग्रथ वेशरूप मोक्षमार्ग ही श्रेष्ठ है। जैसे- गाय के सींग से दूध, सर्प के मुख से अमृत, कुकर्म से यश, मान से महन्तपना कभी भी प्राप्त नहीं होते, वैसे ही कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु, कुधर्म और कुमार्ग सेवन से श्रेय अर्थात कल्याण, शुभ अर्थात् पुण्यकर्म और शिव अर्थात् मोक्ष कदापि प्राप्त नहीं होता । " शाश्वत सुखदाता, जिनधर्म, जिनगुरु, सुशास्त्र का समागम होने पर आसन्न भव्य सूर्यमित्र मुनिराज का हृदय आनन्द की हिलोरें लेने लगता है। वे सच्चे धर्म की प्राप्ति से आर्विभूत हो पुन: पुन: उसकी महिमा करते हुए
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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