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________________ __ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/56 - भावी घटनाओं के ज्ञाता उन मुनिराज ने पहले तो उस ब्राह्मण से बाह्य परिग्रह के त्यागपूर्वक स्वर्ग-मोक्ष की दाता 28 मूलगुण स्वरूप जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान की। दीक्षा तो ब्राह्मण ने उस विद्या के लोभ से ली थी, आत्मकल्याण के लिये नहीं; अत: नवदीक्षित ब्राह्मण दीक्षा लेते ही गुरुवर से प्रार्थना करने लगा - "हे गुरुवर ! अब मुझे शीघ्र वह विद्या दे दीजिये।" तब मुनिवर ने कहा – “हे विद्वान् ! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के बिना मात्र क्रियाकलाप के पाठ से वह विद्या सिद्ध नहीं . होती।” तब नवदीक्षित मुनि सूर्यमित्र ने अपनी बुद्धि के सर्व उद्यम पूर्वक . चारों अनुयोगों के अभ्यास - अध्ययन में लगना प्रारम्भ किया। त्रेसठ शलाका पुरुषों के पूर्वभव आदिक, सुखसामग्री, आयु, वैभव आदि सूचक एवं पुण्य-पाप का फल दिखाने वाले सिद्धान्तों के कारणभूत ऐसे प्रथमानुयोग को सीखा। लोक-अलोक का विभाग उसका संस्थान, नरकों के दुःख, स्वर्गों के सुख, संसार स्थिति का दीपक- ऐसे करुणानुयोग को भी श्रीगुरु के श्रीमुख से सीखा। मुनियों एवं गृहस्थों का आचरण – महाव्रत, अणुव्रत तथा शीलव्रतों का स्वरूप एवं उनका फल दर्शाने वाले चरणानुयोग का ज्ञान किया। - इसीप्रकार सच्चे-झूठे देव-शास्त्र-गुरु का स्वरूप बतानेवाले तथा वस्तु के स्वरूप को बताने वाले शास्त्रों के माध्यम से छह द्रव्य, सात तत्त्व, पांच अस्तिकाय, नव पदार्थ, पांच मिथ्यात्व, सत्य-असत्य मतों की परीक्षा, प्रमाण-नयं आदि का सम्यग्ज्ञान किया। समस्त पदार्थों के संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित सत्य लक्षण जाने और जैनदर्शन अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का स्वरूप जाना। ये सब ज्ञान उन्होंने द्रव्यानुयोग से सीखा। . इस तरह सूर्यमित्र मुनिराज द्रव्यानुयोग के यथार्थ अभ्यास द्वारा उत्तम सम्यक्त्व प्राप्त कर सम्यग्दृष्टि बन गये। हेय-उपादेय का सत्य ज्ञान हो जाने के कारण धर्म-अधर्म, शुभ-अशुभ, जैनधर्म-अन्यधर्म का भी यथार्थ भेद • अपने निर्मल ज्ञान से अच्छी तरह जान गये।
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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