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मान
- जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/55 बढ़ेगी और महान ऐश्वर्य और उत्तम पद प्राप्त होगा। इसप्रकार विचार कर महालोभी सूर्यमित्र गुप्त रूप से वह विद्या – ज्ञान सीखने हेतु श्री सुधर्माचार्य गुरुवर के पास गया।
। उसने योगीजन व अन्य मुनिराजों को हाथ जोड़कर नमस्कार किया और प्रार्थना की - "हे भगवन् ! हे कृपानाथ ! प्रत्यक्ष अर्थप्रकाशिनी अतिदुर्लभ उस विद्या का दान मुझे दीजिये।"
तब हितेच्छु अवधिज्ञानी श्री सुधर्माचार्य गुरुवर ने कहा - - 'हे भद्र! यह प्रत्यक्ष अर्थप्रकाशिनी परम विद्या निर्ग्रन्थ ज्ञानी मुनियों के अलावा अन्य किसी को भी प्रगट नहीं होती, यदि तुम भी वास्तव में इस विद्या के अर्थी हो, तो तुम्हें भी मेरे समान निग्रंथ बनना होगा।' ...
विद्वान सूर्यमित्र ने आचार्यदेव के वचन सुनकर अपने घर जाकर परिवारजनों को एकत्रित कर उनके सामने अपना भाव रखा और कहा - "हे बन्धुगण ! श्री सुधर्माचार्य योगीराज के पास प्रत्यक्ष अर्थप्रकाशिनी, चमत्कारी महाविद्या है। वह निग्रंथ वेश बिना सिद्ध नहीं होती, इसलिये उसकी प्राप्ति हेतु मैं निर्गंथ भेष धारण कर उस विद्या को लेकर शीघ्र ही वापस आ जाऊँगा, आप लोग मेरे वियोग में शोक नहीं करना।"
तब उसके बान्धव जनों ने कहा हे सूर्यमित्र ! विद्या के लोभ से जो तुमने यह विचार किया है वह तो ठीक है, परन्तु कार्यसिद्धि होते ही तुरन्त वापस आ जाना, वहाँ अंटकना मत।
आचार्यश्री तो यह सब जानते ही थे, इसलिये ही उन्होंने पहले से यह नहीं कहा – “पवित्र रत्नत्रय की विशेषता से ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं। गृहीत मिथ्यात्व को छुड़ाकर शनैः शनैः मार्ग पर लाने के उद्देश्य से उन्होंने मात्र इतना ही कहा कि निग्रंथ दीक्षा ले लो।"
प्रश्न – क्या इसे सुधर्माचार्य का छल नहीं कहा जाएगा?
उत्तर – नहीं। इसे छल नहीं समझना चाहिए, यह तो पात्रतानुसार उपदेश की ही श्रेणी में आएगा।