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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - 17/45
मुनिराज महान् वैराग्य को उत्पन्न करने वाली पूतिगंधा के पूर्वभव की बात बताते हुए कहते हैं कि हे पुत्री ! मैं तुझे दुर्गन्धमय शरीर के मिलने का कारण बताता हूँ, तू ध्यान देकर सुन।
भरतक्षेत्र में सौराष्ट्र नाम के देश में गिरनार नाम का एक नगर था । उसके राजा का नाम भूपाल था और वह विशुद्ध सम्यग्दृष्टि था। उस राजा के राज्य में एक गंगदत्त नाम का सेठ था । उसकी पत्नी का नाम सिन्धुमति था । सिन्धुमति को अपने रूप-योवन आदि का बहुत गर्व था ।
एकबार राजा के साथ वनक्रीड़ा को सपत्नीक वन में जा रहे गंगदत्त सेठ ने अनेक महिनों तक अनशन तप करके पारणा के लिये समाधिगुप्त मुनिराज को अपने घर की ओर आते देखकर अपनी पत्नी से कहा कि मुनिराज पधार रहे हैं, तुम उन्हें विधि पूर्वक आहार देने के बाद वन में आ जाना। पति के कहने से सिन्धुमति वापस तो लौट गई, परन्तु उसे मुनिराज के प्रति मन में बहुत ही क्रोध आ गया । वह मुनिराज का पड़गाहन करके अपने घर ले गई और कड़वी तुम्बी सहित विष भरा आहार देने लगी, उसकी दासी द्वारा बहुत रोके जाने पर भी उसने क्रोध से मुनिराज को वह आहार दे दिया । मुनिराज ने आहार लेकर हमेशा के लिये आहार का प्रत्याख्यान करके आराधनाओं का आराधन कर समाधिमरण पूर्वक देव पर्याय प्राप्त की ।
राजा के वन से वापिस आने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि गंगदत्त की पत्नी सिन्धुमति ने कड़वी तुम्बी खिलाकर मुनि की हत्या की है, तो क्रोधित होकर राजा ने सिन्धुमति का सिर मुंडवाकर और गधे पर बैठाकर उस दुराचारिणी को मारते-मारते समस्त नगरजनों को दिखाने के लिये नगर में घुमाया। तत्पश्चात् उसके उदम्बर कोढ़ निकला और सातवें दिन वह मरकर छठवें नरक में बाईस सागर की आयुष्य धारक नारकी हुई। तत्पश्चात् सिंहनी होकर पुन: नरक में गई और सातों नरकों में परिभ्रमण किया । वहाँ से निकलकर तिर्यंचगति में कुत्ती, सूअरी, सियालनी, चुहिया, हथिनी, गधी आदि अनेक पर्यायों को धारण कर तिर्यंचगति के दुःख भोगे । फिर वैश्या होकर, दुःखों से परिपूर्ण दुर्गन्ध शरीर वाली परिवारजनों से निन्दनीय तू पूतिगंधा हुई है।