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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/44 मुनि से विनय पूर्वक प्रश्न किया कि हे महाराज ! मेरे और मेरी रानी रोहिणी के पूर्वभव का वृतान्त बताने की कृपा करो।
तब मुनिराज ने बताया कि इस भारत देश की हस्तिनापुर नगरी में सदियों पहले एक वसुपाल नाम का राजा राज्य करता था। उसके भाई धनमित्र के पूतिगंधा नाम की एक कन्या थी। पूतिगंधा के शरीर से मरे हुए कोढ़ी कुत्ते के शरीर जैसी भीषण दुर्गन्ध निकलती थी उसकी भीषण दुर्गंध से आकाश भी दुर्गन्धमय हो जाता था।
उसी नगर में एक वसुमित्र नाम के धनवान सेठ के श्रीषेण नामक पुत्र था, वह सप्तव्यसनी महापापी था। एक बार उसको चोरी करते हुए कोतवाल ने पकड़ लिया और जब वह उसे मजबूत सांकलों से बांधकर नगर में घुमा रहा था। तब पूतिगंधा के पिता ने श्रीषेण से कहा कि यदि तू मेरी पुत्री के साथ विवाह करे तो मैं तुझे इस बन्धन से छुड़ाकर मुक्त करवा दूं। मार के भय से दुःखी श्रीषेण ने कहा कि “मामा ! यदि तुम मुझे छुड़ाओगे तो मैं तुम्हारी पुत्री के साथ विवाह अवश्य करूँगा।"
पूतिगंधा के पिता ने राजा से प्रार्थना करके श्रीषेण को बन्धन मुक्त कराया और पूतिगंधा से विवाह कर दिया। परन्तु उसकी दुर्गन्ध के कारण वह एक रात्रि भी उसके साथ नहीं रह सका - इस कारण प्रातःकाल होते ही उसे छोड़कर चल दिया। इससे पूतिगंधा दीन-हीन होकर अपने पिता के घर में दिन व्यतीत करने लगी।
एक समय वहाँ पिहितास्रव नाम के चारण ऋद्धिधारक मुनिराज संघ सहित पधारे। उनके आने के समाचार मिलते ही राजा आदि सभी नगरवासी मुनिसंघ की वन्दना करने के लिये वन में गये। पूतिगंधा भी अपने मातापिता के साथ मुनि वन्दना के लिये गई। पूतिगंधा ने मुनिराज की वन्दना करके उपदेश सुनने के पश्चात् विनय से प्रश्न किया कि मैंने अपने पूर्वभव में ऐसा कौन-सा निकृष्ट पाप किया है, जिसके कारण मैं पूतिगंधा होकर महान दुःख भोग रही हूँ।