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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - 1 -17/36 उसकी पत्नी का नाम जिनदत्ता और पुत्र का नाम सुकान्त था । सुकान्त हमेशा धर्म कार्यों में संलग्न रहता था । कुछ समय बाद भवदेव धन कमाने की इच्छा से परदेश जा रहा था। उस समय उसने रतिवेगा के पिता श्रीदत्त से कहा कि मैं बारह वर्ष तक वापस नहीं आऊँ तो तुम रतिवेगा का विवाह अन्य के साथ कर सकते हो। कर्म संयोग से हुआ भी ऐसा ही, कि भवदेव बारह वर्ष बीतने के बाद भी वापस नहीं आ सका । अतः बारह वर्ष बीतने के पश्चात् श्रीदत्त ने रतिवेगा का विवाह अशोक सेठ के बेटे सुकान्त के साथ विधि पूर्वक कर दिया। तत्पश्चात् जब भवदेव परदेश से वापस आया और उसने सारा वृतान्त सुना, तो वह अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसने सुकान्त एवं रतिवेगा को जान से मारने का यत्न आरम्भ कर दिया। यह बात जानकर भय के कारण सुकान्त और रतिवेगा वन में चले गये। वहाँ एक सुन्दर सरोवर था । उस सरोवर पर शक्तिषेण नाम का राजा ठहरा हुआ था। वे दोनों राजा शक्तिषेण की शरण में पहुँच गये तथा निर्भय होकर रहने लगे। उन भव्य जीवों के सुकर्म योग से वहाँ एक चारणऋद्धिधारी मुनिराज आहार के लिये पधारे और राजा शक्तिषेण ने प्रसन्नचित्त से नवधाभक्तिपूर्वक मुनिराज को आहार दिया तथा पूजा - भक्ति पूर्वक उनका सम्मान किया । इस विधि को देखकर वे दम्पत्ति सुकान्त और रतिवेगा अत्यन्त हर्षित हुए और अनित्यादि बारह भावनाओं का चिन्तवन करते हुए मन में दयाभाव धारण कर वहीं अपना समय व्यतीत करने लगे । + + + एक समय मोका मिलते ही दुष्ट भवदेव ने वहाँ आकर उन दोनों को जलाकर मार डाला और राजा शक्तिषेण के सुभटों ने दुष्ट भवदेव को मार डाला । इसलिये कहावत है कि जो दूसरों के लिये कुआँ खोदता है, उसके लिये पहले से ही कुआँ तैयार रहता है। पूर्व विदेह की पुण्डरीकिणी नगरी में प्रजापाल नाम का राजा राज्य करता था और वहाँ एक कुबेरमित्र नाम का सेठ भी रहता था । उस सेठ की
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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