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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-17/17 ___ यह सम्पूर्ण वृतान्त एवं मुनिराज का धर्मोपदेश सुनकर वह (प्रवर किसान का जीव) गूंगा उनकी प्रदक्षिणा देकर मुनिराज के चरणों में गिर पड़ा, आनन्दाश्रुओं से उसके नेत्र भर गये और वह गद्गद् वाणी में बोला – “हे मुनिराज ! आप सर्वज्ञतुल्य हो, वस्तु के स्वरूप के प्रत्यक्ष दृष्टा हो ! त्रिलोक की रचना आपसे छिपी नहीं है। हे श्रीगुरु ! मेरे मनरूपी नेत्र अज्ञानरूपी पटल से आच्छादित थे। सो आपने ज्ञानरूपी अंजन से उस अज्ञानरूप पटल को दूर किया है। हे भगवन् ! आप प्रसन्न होकर मुझे दिगम्बरी दीक्षा प्रदान करो - ऐसा कहकर किसान मुनि हो गया। कितने ही जीवों ने श्रावक के व्रत अंगीकार किए; परन्तु ये दोनों भाई अग्निभूति व वायुभूति लज्जित होकर अपने घर गये। उनके माता-पिता ने भी उन्हें खूब फटकार लगाई – इससे ये दोनों भाई मुनि के कारण अपना अपमान हुआ जानकर क्रोधित हो रात्रि में मुनिराज को मारने के लिये गये। उस समय वे सात्विक मुनि एकान्त में कायोत्सर्ग करके खड़े थे। इन दोनों भाईयों ने मुनिराज के ऊपर तलवार चलाई, तब वन के अधिष्ठाता यक्षदेव ने उन्हें बांध दिया और प्रात:काल होने पर लोगों ने उनका यह कृत्य देखकर बहुत निन्दा की और ये दोनों भाई भी मन ही मन अपने दुराचार की निन्दा करने लगे। - ये दोनों चित्त में चितवन करने लगे कि मुनिराज का महाप्रभाव है। हमने विनयाचार का उल्लंघन किया है। इस कारण कीलित (बंधन) हुए हैं। हमने जिनधर्म का फल प्रत्यक्ष देख लिया। अब यदि बंधन से छूटेंगे तो जिनधर्म की आराधना करेंगे। दोनों भाई ऐसा विचार करते हुए खड़े थे और उनके माता-पिता ने पुत्रों को बंधन में पड़ा जाना, सो वे दोनों आकर मुनिराज. के चरणों में आ गिरे और मुनिराज को प्रसन्न करने लगे। मुनि तो महादयावान, ध्यानस्थ होकर खड़े थे। यह सब कार्य यक्षदेव ने जाना । वह महा-विनयवान होकर मुनिराज के सामने प्रगट हो गया। . मुनिराज ने ध्यान भंग होने पर उससे कहा कि हे यक्षराज ! इन ब्राह्मण पुत्रों को क्षमा करो। कर्म की प्रेरणा से जीव के शुभाशुभ कार्य होते हैं।
SR No.032266
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 17
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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