SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/78 दीवान रतनचंद - (निराश से दुखित हो) एक बार और समझाने का यत्न करता हूँ। वैसे उनके सुबह के विचारों से मुझे जरा भी आशा नहीं है। इस समय वे अत्यन्त क्रोधावेश में हैं। उन्हें भड़काया गया है। राजाओं के कान होते हैं आँखे नहीं। अजबराय - बाद में पछताएँगे और क्या है। - दीवान रतनचंद-(गहरा उच्छ्वास लेते हुये) बाद में पछताने से अपना क्या प्रयोजन सधेगा? बाती चुक गई फिर स्निग्धता से क्या लाभ ? मार्ग दर्शक दीप तो बुझ जाएगा। अध्यात्म लोरियों को सुना-सुना कर अंतश्चक्षुओं को जगाने वाला हितचिंतक कहाँ मिलेगा ? अजबराय - चलिये एक बार राजा साहब से फिर मिला जाय। दीवान रतनचंद - (हताश हो) चलो। लक्षण शुभ नहीं दिख रहे। दृश्यांतर स्थान - टोडरमलजी का अध्ययन कक्ष समय - दोपहर के चार बजे (टोडरमलजी अपने अध्ययन कक्ष में अपने ग्रन्थ मोक्षमार्ग प्रकाशक के लेखन कार्य में तल्लीन हैं। ...........बहु...... राजसैनिक आते हैं और पण्डितजी को पकड़ कर ले जाते हैं।) दृश्यांतर स्थान - बध्यभूमि का विशाल प्रांगण समय - संध्या काल (चारों ओर जन समूह उमड़ रहा है। बीच के घेरे में टोडरमलजी ध्यानस्थ हैं। उन्हें अभी-अभी हाथी के पैरों तले रौंदा जाएगा। हाथी आता है। उस पर महावत अंकुश लिये बैठा है। जन समूह की आँखों से अविरल अश्रुधार बह रही है। सब ह्रदय थामें उनकी ओर देख रहे हैं एवं उन दुष्क्षणों को कोस रहे हैं जो अभी आने वाले हैं।)
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy