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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/61 कौशल्या- अरे निष्ठुर दैव ! इस वियोग की ज्वाला को मैं ह्रदय में कैसे दबाकर रख सकूँगी राम ! दशरथ - (व्यथित विह्वल हो) राम ! रामचंद्र -आप ऐसे कातर न हों तात! माँ तुम जानती हो सब भावनाओं का खेल है। अपने-पराये से ऊपर उठ स्वच्छ प्रेम की विशाल परिधि में समस्त विश्व को घेर लें तो दुख कहाँ और अशांति कहाँ ? सब क्षणमात्र में विलीन जो जाते हैं। दशरथ- राम! तुम्हारे वचनों में हमें अलौकिकता के दर्शन हो गये। अब तुम स्वतन्त्र हो। जहाँ जाना चाहो, जाओ। हम भी लौकिक बंधनों को तिलांजलि दे स्वतन्त्र हो उन्मुक्त विचरण करेंगे। आत्मानन्द की प्राप्ति के अनुसंधान में लगेंगे। रामचंद्र - उत्तम विचार है तात् ! सच्चा सुख तो विकल्पों के त्याग में ही है। कैकेयी - यह कैसा विचार ? क्या हम पति व पुत्र विहीन हो जायेंगी? मेरे एक अविवेक ने घर का ढाँचा ही बदल दिया। जहाँ आनन्द का साम्राज्य था; वहाँ विषाद के सघन श्याम घन छा गये। रामचंद्र - माँ ! मैंने निवेदन किया न कि आनन्द के साम्राज्य में विषाद के बादल छाते ही नहीं, आलोक और अंधकार कभी एक साथ नहीं रहे। आनन्द का साम्राज्य बाहर नहीं; अपितु अन्तर में है। कौशल्या-राम! तूने वनवान की चौदह वर्ष की अवधि ही क्यों निश्चित की ? इसमें न्यूनता तो हो सकती है ? ___ रामचंद्र - हो तो सकती है, पर उससे लाभ नहीं होगा। साधना के लिये एक युग अनिवार्य है। भरत - मेरे प्रिय अग्रज ! तुम वचनों पर दृढ़ हो; परन्तु एक निवेदन मेरा भी स्वीकार करो।
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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