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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/47 पति-पुत्र दोनों के वियोग की व्यथा क्या मैं एक साथ सहन कर सकूँगी। नहीं नहीं, मुझमें यह क्षमता नहीं है। भरत - माँ ! तुमने मुझमें अदभ्य साहस भरा है और आज तुम्ही........ कैकेयी- (बीच में ही ) हाँ वत्स! सबको प्रकाशित करने वाली दीपिका के तल में गहन अंधकार व्याप्त रहता है। तुम इतनी कठोरता से मेरे साहस की परीक्षा मत करो। माँ की ममता को चुनौती मत दो मेरे लाल ! भरत - माँ ! चुनौती क्या तुम्हें तुम्हारा पुत्र ही देगा ? नहीं यह असंभव है माँ ! चंदक्षणों पूर्व कितनी प्रसन्न थी और अभी-अभी कितनी व्यग्र हो उठीं। कैकेयी - तूने बात ही ऐसी कह दी है भरत ! भरत - तुम क्या सबको चिरस्थाई मान रही हो ? हर्ष-विषाद कुछ भी स्थिर नहीं रह पाया है माँ ! दिन सदा हर्ष के नहीं रहते। पुष्प प्रातःखिलता है, संध्या को मुरझा कर गिर जाता है। पूर्णिमा की धवल चाँदनी प्रतिपदा से ही ढलने लगती है। दोपहर का प्रचण्ड मार्तण्ड भी सांझ पड़े निष्प्रभ हो प्रतीची (पश्चिम) में मुंह छिपा लेता है। कैकेयी - वत्स ! आज तुम यह कौन सी भाषा बोल रहे हो ? · भरत - माँ ! आज मैं नहीं, सृष्टि के प्रारम्भ से ही क्षण-क्षण कण-कण यही बोल रहा है। हम हैं कि उनकी मौन वाणी सुन नहीं पाते या सुनकर अनसुनी कर देते हैं। देखकर भी अनदेखे बन जाते हैं। सत्य की अनुभूति न हो सके, अतः हम बाह्य-प्रवृत्तियों में अपने को खो देते हैं। कैकेयी- तुम्हारी बातें रहस्यमयी हैं वत्स ! यों वस्तुतः यही तथ्य सत्य है, पर विरक्ति की बातें इस अवसर पर उचित नहीं लगती भरत ! अपने समय पर ही कार्य की शोभा है। सबका समय निर्धारित है। __ भरत - माँ ! बताओ क्या मृत्यु का समय भी निर्धारित है ? क्या हमें विश्वास है कि निकली हुई श्वांस लौटकर नियम से आएगी ही ? कैकेयी-आयुष्मन् ! तुम कैसी बातें कर रहे हो ? आज की मंगल बेला में क्या यह शुभ है ?
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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