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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-16/46 भी ऐसे ही हँसा करो। (राम खिल-खिला पड़ता है। कैकेयी उसका मुख चूम लेती है।) __... (नेपथ्य वार्तालाप समाप्त) __(कैकेयी का ध्यान सामने बैठे पक्षी की ओर जाता है।) कैकेयी- (पक्षी को देखकर, स्वगत) ओह ! कितने श्रम से ये चिड़िया कहाँ-कहाँ भटककर शिशु को चुगाने के लिये दाना लाती है। शिशु भी माँ को आता देखकर एक डग फुद्रक कर आतुर हो अपना छोटा सा मुँह खोल देता है और माँ चोंच में लाये कण को स्नेह पूर्वक उसके मुँह में रख देती है। इसी भाँति मैं भी अपने राम को अपने हाथों भोजन कराया करती थी। (भरत का प्रवेश) भरत - किसको भोजन कराती थी माँ ? कैकेयी- (हर्ष विभोर हो) राम के राजतिलक पर मुझे उसके शैशव की सुधि हो आई भरत !........तुम कहाँ थे ? स्नानादि से निवृत्त नहीं हुये ? __भरत - अभी हुआ जाता हूँ माँ ! बस मैं बिल्कुल ही निवृत हो जाना चाहता हूँ। कैकेयी- इसका क्या मतलब है वत्स ! भरत - पिताश्री के पथ का मैं भी अनुसरण करूँगा। कैकेयी - (भयमिश्रित आश्चर्य से) क्या कह रहे हो भरत ! भरत - सत्य कह रहा हूँ माँ ! पिताश्री वानप्रस्थ कर रहे हैं। मुझे भी वही मार्ग उचित लगा है। कैकेयी- वत्स ! उनका भी उस पथ पर चलना उचित नहीं कहा जा सकता। अभी उनकी वृद्धावस्था का प्रारम्भ ही तो है। अपेक्षाकृत उचित भी मान लें। पर तुम्हारा तो सर्वथा अनुचित है। भरत-सिद्धांत प्रत्येक व्यक्ति के लिये एक है माँ ! मुझे इसमें कोई बाधा नहीं दिखती। कैकेयी- आयुष्मन् ! तुम बालक हो। (दुखित हो) विचारो तो सही;
SR No.032265
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 16
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages84
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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