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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/६३ लोगों की बात मान ली जाये तो मन्दिर, पूजा सब ही बंद हो जायें और तो और जैनधर्म का नाम लेने वाला भी दुनिया में न बचे। समझते तो हैं नहीं, तान छेड़ते हैं। 'धर्मचन्द - नहीं भाई पुण्यप्रकाश ! पण्डितजी शुभभाव का निषेध थोड़े ही कर रहे थे। वह तो ज्ञानियों को भी होता है, पर जिस तरह ज्ञानी उसे हेय जानते हैं, धर्म नहीं मानते; उसीप्रकार हमें भी पुण्यभाव में धर्म नहीं मानना चाहिये। अरे भाई ! वे पूजा, प्रक्षाल, मन्दिर का निषेध नहीं करते इनमें धर्म मानने का निषेध करते हैं। अरे स्वयं को ही देखो न ! हम पूजा-प्रक्षाल करते-करते वृद्ध हो गये पर धर्म प्रगट नहीं हुआ। अरे धर्म तो आत्मानुभव से होता है और वह शुभाशुभ भावों से एकदम भिन्न है। पुण्यप्रकाश - तुम्हारी अक्ल तो घास चरने चली जाती है धर्मचन्द ! अरे सोचो ! वैसे ही तो आजकल लोग मन्दिर में नहीं आते कोई कभी-कभार आये भी तो उससे ये कह दो कि मन्दिर आने से धर्म नहीं होता इससे संसार बढ़ता है, फिर तो हो गई छुट्टी, तुम अकेले ही मन्दिर में बैठे राग अलापते रहना, तभी तुम्हें चैन मिलेगा। धर्मचन्द - देखो भाई पुण्यप्रकाश ! तीन काल में कभी भी शुभ भाव से धर्म नहीं होगा। कोई भी आज तक दया-दान-भक्ति के भाव से मोक्ष नहीं गया, सत्य तो यही है। इसलिए हर कथन की अपेक्षा समझनी चाहिये। पुण्यप्रकाश - मैं नहीं जानता तुम्हारी अपेक्षा-क्पेक्षा। ये सब पण्डितों के हथकण्डे हैं। कभी कहते हैं कि रोज मन्दिर जाओ, रात को मत खाओ, आलू-प्याज मत खाओ और कभी कहते हैं मन्दिर जाने से धर्म नहीं होता है और तू भी जब से इन जयपुर के पण्डितों के चक्कर में पड़ा है, तब से इनकाही राग अलापने लगा है; लेकिन अब ये ज्यादा दिन नहीं चलेगा; कुछ न कुछ इन्तजाम तो करना
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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