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________________ जैनधर्म की कहानियाँ भाग - १४/५७ "हे देव ! आप वहाँ मत जाइये। चलो, हम भी इन लोगों के साथ निर्भय स्थान में जाकर रात्रि बितायेंगे ।" उस समय राम ने हँसकर कहा “हे जानकी ! तुम तो बहुत कमजोर हो। तुम्हें लोगों के साथ जाना हो तो तुम जाओ। मैं तो रात को इसी पर्वत के ऊपर रहूँगा और वहाँ यह सब क्या हो रहा है, उसे देखूँगा । मुझे कोई डर नहीं है। तब सीता ने कहा " हे नाथ ! तुम्हारा हठ दुर्निवार है। तुम जाओगे तो मैं भी साथ ही आऊँगी। आप और लक्ष्मण जैसे वीर हमारे साथ हों, फिर मुझे भी भय कैसा - ऐसा कहकर वह भी राम-लक्ष्मण के साथ ही वंशधर पर्वत की ओर जाने लगी । - - लोगों ने उन्हें न जाने के लिए बहुत समझाया, परन्तु राम-लक्ष्मण निर्भयतापूर्वक पर्वत की ओर चले गये, सीता भी उनके साथ गयी। सीता भय से कहीं पर्वत के ऊपर से गिर न जाये - ऐसा विचार कर राम आगे और लक्ष्मण पीछे, बीच में सीता - इसप्रकार दोनों भाई बहुत सावधानी से सीता को पहाड़ के शिखर के ऊपर तक ले गये । पहाड़ के ऊपर जाकर उन्होंने अद्भुत आश्चर्यकारी दृश्य देखा। अहो ! अत्यन्त सुकोमल दो युवा मुनिराज खड़े-खड़े देह से भिन्न आत्मा का ध्यान कर रहे हैं। नदी के समान गंभीर उनकी शांत मुद्रा है - ऐसे वीतरागी मुनि भगवन्तों को देखकर उन्हें अत्यन्त प्रसन्नता हुई और भक्तिभाव से स्तुति की कि पर्वत के ऊपर रहनेवाले पशु भी सुनकर मोहित हो गये और वहाँ आकर शांति से बैठ गये । उसके बाद राम-लक्ष्मण-सीता वहीं रुक गये । फिर रात हुई .... और असुर उपद्रव करने वहाँ पहुँचा, बड़ा भयंकर सर्प का रूप लेकर जीवों को ललकारते हुए वह उन मुनिराजों के शरीर से लिपट गया। राम-लक्ष्मण इस उपद्रव को की माया असुर —
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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