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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/४२ प्राप्त करके दीक्षा ली थी। इसलिए तुम भी अपने हित के लिए इस उत्तम मार्ग को अंगीकार करो।" ___ राजा की बात सुनकर रानियों ने भी विचार किया -
“अरे ! प्राणनाथ के साथ वर्षों तक संसार को बढ़ाने वाले अनेकों भोग भोगे, जब वे ही ये सभी भोगोपभोग छोड़कर आत्मध्यान करने के लिए जंगल में जा रहे हैं, तब हम क्या इन राजभोगों में पड़े रहकर श्रृंगार करते रहेंगे? नहीं, यह हमें शोभा नहीं देता, हमें भी राजभोगों को छोड़कर उनके ही मार्ग पर चलकर आत्मकल्याण करना चाहिये।"
ऐसा विचार करके वे रानियाँ भी दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गयीं। ऐसे सुअवसर को पाकर उनका भी चित्त प्रसन्न हुआ।
वरांग के पालक-पिता सागरबुद्धि सेठ, जिन्होंने विपत्ति के समय में वरांगकुमार का पुत्र के समान पालन किया था, उन्होंने भी दीक्षा के प्रसंग पर कहा -
“हे कुमार ! मैं भी तुम्हारे साथ दीक्षा लूँगा । राजकार्य और संसार के भोगोपभोगों में तुमने हमारा साथ दिया, अब इस उत्तम धर्मकार्य में यदि मैं तुम्हारा साथ न देकर अलग हो जाऊँ तो मेरे समान अधम कौन होगा ? तुम धर्म-साधना के उत्तम मार्ग पर जा रहे हो, मैं भी उस ही मार्ग पर चलता हूँ।" - इसप्रकार पालक-पिता सागरबुद्धि सेठ भी दीक्षा लेने के लिए तैयार हो गये।
दीक्षा के लिए जाते समय वरांग राजा ने अपने पुत्रों को अंतिम, आत्म-हितकारी शिक्षा देते हुए कहा -
“लौकिक न्याय-नीति और सज्जनता के उपरान्त, भगवान अरहंत देव के द्वारा उपदिष्ट रत्नत्रय धर्म को कभी नहीं भूलना । शास्त्रज्ञ विद्वानों की सेवा करना, रत्नत्रय से विभूषित सज्जनों का आदर और समागम करना। जब-जब अवसर मिले तब-तब मुनि, आर्यिका, श्रावक और