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________________ वीर वरांगकुमार का वैराश्य भगवान श्री नेमिनाथ प्रभु के समय की बात है । उत्तमपुरी नाम की नगरी में धर्मसेन राजा तथा गुणवती रानी रहती थी, उनका पुत्र था वरांगकुमार । वे श्री नेमिनाथ तीर्थंकर तथा महाराज श्रीकृष्ण के समकालीन थे। जयसिंहनंदि नाम के मुनिराज ने (वीर निर्वाण की १२वीं सदी में) वरांग चरित्र की रचना की है, उसमें से वैराग्यांश का दोहन कर यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। वरांगकुमार के जीवन का घटनाचक्र बड़ा विचित्र है। जवान होने पर धर्मसेन महाराज ने वरांगकुमार को युवराज पद दिया, इस बात से नाराज होकर उसकी सौतेली माता और उसका पुत्र सुषेणकुमार, दुष्ट मंत्री के साथ मिलकर राजकुमार वरांग को मार डालने की कोशिश करने लगे। उसे दुष्ट घोड़े के ऊपर बैठाकर कुएँ में गिराया, वह वहाँ से जिस-तिस प्रकार बचकर निकला, तब फिर वाघ को उसके पीछे लगाया; लेकिन पुण्ययोग से हाथी की सहायता के द्वारा वह उससे भी बच गया। फिर अजगर का उपद्रव हुआ, वहाँ एक देवी ने उसे बचाया और उसके शीलव्रत से प्रसन्न होकर उसकी वह भक्त बन गई। उसके बाद एक भील बलिदान (बलि देने) के लिए उसे पकड़ कर ले गया, लेकिन वरांगकुमार ने भील-पुत्र के साँप का जहर उतारा, तब उसने भी उसे छोड़ दिया। उसके बाद सागरबुद्धि सेठ की वणसार में रहकर उसने सेठ को लुटेरों से बचाया और सुभट के रूप में सेठ ने उसे पुत्र के समान रखा । इसप्रकार सागर सेठ उसका पालक पिता बना। एकबार मथुरा के राजा ने ललितपुर के ऊपर चढ़ाई की, तब बहादुर वरांग ने उसको पराजित कर ललितपुर की रक्षा की। इससे ललितपुर के राजा ने उसे आधा राज्य दे दिया तथा अपनी राजकन्या से उसका विवाह कर दिया - इसप्रकार धर्मात्मा वरांगकुमार ने अनेक उपद्रवों के बाद भी पुण्ययोग से पुन: राजपद प्राप्त किया।
SR No.032263
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 14
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2014
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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