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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/२१ इन्द्र : नहीं, सिद्धकुमारजी! ऐसा नहीं है। यह इन्द्र पद का जन्म हुआ, वह तो राग का ही फल है। धर्म के फल में संसार में जन्म नहीं लेना पड़ता। धर्म का फल तो आत्मा में मिलता है।
सिद्धकुमार : हे नाथ! धर्म का फल आत्मा में किसप्रकार मिलता है?
इन्द्र : देखो कुमारजी! सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप वीतरागभाव ही धर्म है। जितने अंश में वीतरागभाव की आराधना करे, उतने अंश में जीव को वर्तमान में ही अपूर्व शांति का वेदन होता है। अंतर में चैतन्य का अनाकुल सुख प्रगट होता है। अतीन्द्रिय आत्मिक आनंद से वह तृप्त हो जाता है।
मुक्तिकुमार : महाराज! क्या वह आनंद इस इन्द्र पद से भी अधिक होगा?
इन्द्र : अरे देवो! यह इन्द्र पद तो क्या, ऐसे अनंत इन्द्र पद की विभूति भी आत्मा के सुख के एक अंश के बराबर भी नहीं है। जगत के सर्व सुख की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि के सुख की जाति ही भिन्न है, अलग है।
मुक्तिकुमार : तो क्या सम्यग्दृष्टि को ऐसे वैभवशाली इन्द्र पद की इच्छा नहीं होती?
इन्द्र : नहीं, सम्यग्दृष्टि जीव नि:कांक्षित गुण सहित होते हैं, अत: उन्हें वैभव की वांछा नहीं होती। जिसने चैतन्यसुख का स्वाद .या आनंद लिया हो, उसे बाहर के पदार्थों की इच्छा कैसे होगी ?
___ दिव्यकुमार : महाराज! सम्यदृष्टि जीव में और कौन-कौन से गुण होते हैं?
इन्द्र : अहो! समकिती के अपार गुणों की क्या बात ? समकिती के गुण अपार हैं, उनमें ८ गुण प्रधान हैं।
दिव्यकुमार : वे आठ गुण कौन-कौन से हैं? इन्द्र : निःशंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढदृष्टि,