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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-१४/१७ मगनलाल : क्या यह बात सुनकर ही आपको वैराग्य हो
गया?
शांतिलाल सेठ : हाँ भाई! अपने बड़े भाई की यह चर्चा सुनकर मेरे अंतर में जिज्ञासा हुई। फिर मैं अपने भाईसाहब के साथ मुनिराज के पास गया। उन मुनिराज के श्रीमुख से अपूर्व कल्याणकारी उपदेश को सुनकर मेरी खुशी का ठिकाना ही न रहा। मैंने मुनिराज के पास ही जुआ-आदि समस्त पापों का त्याग कर दिया तथा जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करने की प्रतिज्ञा ली है।
छगनलाल : अहो, धन्य हो! आपके हृदय-परिवर्तन को धन्य हो!! अब हमारी भावना भी इस उत्तम कार्य में प्रवृत्त होने की हो रही हैं, परन्तु आज मैं सट्टे में पाँच हजार रुपये हार गया हूँ, इसलिए बहुत परेशान हूँ।
शांतिलाल सेठ : मित्र! तुम चिन्ता मत करो! यदि तुम जीवनभर के लिए जुए का त्याग करो तो मैं तुम्हें पाँच हजार रुपये देने को तैयार हूँ।
छगनलाल : भाई! तुम्हारे इस उपकार को मैं कभी नहीं भूलूँगा। मैं आपके सामने जुआ-आदि सभी पापों का हमेशा के लिए त्याग करता हूँ और आपके समान ही प्रतिदिन जिनेन्द्रदेव के दर्शन करने की भी प्रतिज्ञा लेता हूँ। आपका महान उपकार है, जो आपने मुझे महापाप से बचाकर सन्मार्ग में लगाया।
मगनलाल : हाँ भाई! आप दोनों की बातें सत्य हैं। मैं भी आप लोगों के समान जुआ-आदि पापों को छोड़कर प्रतिदिन जिनदर्शन किया करूँगा। अहो! धन्य है आज का दिन, हम सभी को सन्मार्ग की प्राप्ति हुई और नरक के घोर पापों से हमारा उद्धार हो गया।
शांतिलाल सेठ : भाई! यह सब तो जैनधर्म और मुनिरा. का प्रताप है। (चलो, आज के इस शुभ प्रसंग की खुशी में हम सभी भक्ति करें।)