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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/७६ इस नगरी में विराज रहे हैं - ऐसी महिमा करते-करते उनके आत्मा में कोई आश्चर्यजनक परिवर्तन होने लगा। अन्तर की गहराई में रही हुई सूक्ष्म शंका न जाने कहाँ चली गई ! शंकारहित निःशंक हो जाने से उन मुनिवरों का आत्मा प्रफुल्लित हो उठा....अचानक यह क्या हुआ ? वह देखने के लिये पाठको ! चलो त्रिशला माता के भवन में चलें!....
राजप्रासाद के झरोखे में वर्द्धमान कुमार त्रिशला माता के साथ बैठे हैं। जैसे चैतन्य की स्वानुभूति द्वारा जिनवाणी माता सुशोभित होती है वैसे ही वीर कुँवर द्वारा त्रिशला माता शोभायमान हो रही थीं। माता-पुत्र के वात्सल्य का अद्वितीय दृश्य देखनेवालों के हृदय से स्नेह उमड़ता था। बालप्रभु महान स्वानुभूति की दिव्यता और साथ ही तीर्थंकरत्व की सातिशयता से सुशोभित हो रहे थे; नि:शंकता, प्रभावनादि आठ गुणों से वे अलंकृत थे। संजय और विजय मुनिराज जब आकाशमार्ग से गमन करते हुए राजप्रासाद के ऊपर आये तब अचानक ही उनकी दृष्टि वर्द्धमान कुँवर पर पड़ी; बाल-तीर्थंकर को देखकर वे आश्चर्य में पड़ गये....क्षणभर के लिये थम गये और उनकी महिमा का विचार करने लगे। इतने में सातिशय जिनमहिमा के प्रताप से उनका मतिज्ञान उज्ज्वल हुआ और सूक्ष्म शंकाओं का भी समाधान हो जाने से वे निःशल्य हो गये। ___इसप्रकार वीरनाथ प्रभु उनकी मति की उज्ज्वलता के कारण बने; इसलिये मुनिवरों ने प्रसन्नचित्त से उनको ‘सन्मतिनाथ' नाम से सम्बोधन किया। वाह ! वीर-वर्द्धमान-महावीर-सन्मतिनाथ आपका एक मंगल-नामकरण इन्द्र ने, दूसरा माता-पिता ने, तीसरा देव ने और चौथा मुनिवरों ने किया। तीन उत्तम ज्ञान तथा चार उत्तम नामों को धारण करनेवाले आप त्रि-जगत को रत्नत्रय का इष्ट उपदेश देकर कल्याण करनेवाले हो; आपकी जय हो। ___ मुनिवरों ने प्रभु को ‘सन्मतिनाथ' विशेषण से अलंकृत किया, जिससे प्रसन्न होकर नगरजनों ने उत्सव किया; देवों ने आकाश में बाजे बजाकर आनन्द मनाया; 'अहो सन्मतिनाथ ! आप हमें अपूर्व सम्यक्मति के दाता हो, आपकी पहिचान से हमारी मति सम्यक् हुई है....और उसके द्वारा चैतन्यतत्त्व प्राप्त करके हम आपके मार्ग की साधना कर रहे हैं। सबको सन्मतिदाता सन्मतिनाथ की जय हो....।