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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/७८ उदयभावों का प्रतीक है और महावीर ने शान्त-प्रतिबोध से उसे जीत लिया, वह उपशान्तभाव का प्रतीक है। बाल्यावस्था में भी उन महावीर आत्मा में जितना उपशान्त भाव (ज्ञानचेतनारूपभाव) था, वही हमें इष्ट है और उस भाव स्वरूप ही हमें महावीर को देखना चाहिये।
(पुराणों में वर्णित प्रत्येक घटना द्वास उन-उन आराधक महात्माओं की चैतन्य परिणति में ज्ञानादि के कैसे-कैसे भाव वर्तते थे ? उन भावों की पहिचान करने से उन आराधक जीवों की सच्ची पहिचान होती है और स्वयं को वैसे आराधकभाव की उत्तम प्रेरणा मिलती है।)
सन्मतिनाथ (संजय और विजय मुनिवरों का प्रसंग) तीर्थंकर वर्द्धमान जब बाल्यावस्था में थे, तब पार्श्वनाथ तीर्थंकर का शासन चल रहा था; उस शासन में संजय और विजय नाम के दो मुनि विचर रहे थे; रत्नत्रयवन्त वे मुनिवर आकाशगामी थे। स्वानुभूति की चर्चा करते-करते वे सिद्ध क्षेत्र की यात्रा हेतु सम्मेदशिखर तीर्थ भूमि में पधारे और वहाँ अनन्त सिद्धों का स्मरण करके आत्मध्यान किया। __पश्चात् संजय मुनि बोले - अहा ! स्वानुभूति में आत्मा स्पष्ट ज्ञात होता है; वहाँ मति-श्रुतज्ञान होने पर भी वे अतीन्द्रिय भाव से काम करते हैं, इसलिये स्वसंवेदन में प्रत्यक्षपना है, उसमें कोई सन्देह नहीं रहता। तब विजय मुनि ने कहा- हाँ मुनिराज ! आपकी बात सत्य है; परन्तु मति-श्रुतज्ञान के निर्बल होने से किन्हीं सूक्ष्म ज्ञेयों में सन्देह भी बना रहता है। देखो न, सूक्ष्म अगुरुलघुत्वजनित षट्गुणी वृद्धि-हानि के किसी गम्भीर स्वरूप का हल अभी हमें नहीं मिलता और सूक्ष्म शंका रहा करती है।
पार्श्वनाथ भगवान तो मोक्ष पधार गये; वर्द्धमान तीर्थंकर अभी बाल्यावस्था में हैं; किन्हीं केवली या श्रुतकेवली के दर्शन से ही हमारी इस सूक्ष्म शंका का समाधान हो सकेगा। इसप्रकार सूक्ष्म शंका सहित विचरते हुए वे मुनिवर सम्मेदशिखर तीर्थ की यात्रा करके लौटते समय वैशालीकुण्डपुर में सिद्धार्थ महाराजा के राजप्रासाद के ऊपर से जा रहे थे और सोच रहे थे कि अहा! यह एक तीर्थंकर की जन्मभूमि है; भारत के अन्तिम तीर्थंकर