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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/८०
राजसभा में युवराज महावीर की धर्मचर्चा (श्री वीरमुख से चैतन्य की अचिन्त्य महिमा का वर्णन)
वीरकुमार बीस वर्ष के हो गये थे। युवा होने पर भी अध्यात्मरस के रसिक वे राजकुमार राजयोगी समान जीवन जीते थे; कभी-कभी चैतन्य की धुन में लीन हो जाते और कभी तो अर्द्धरात्रि को राजभवन से बाहर निकलकर उद्यान में खड़ेखड़े ध्यान धरते थे....मानों कोई मुनिराज खड़े हों ! ऐसा होने पर भी कहीं दिनभर शून्यमनस्क - उदास नहीं बैठे रहते थे; सबके साथ हिलते-मिलते और प्रजाजनों के सुख-दुःख की बातें सुनते थे। यद्यपि राज्य का कार्यभार सम्हालने में उनकी रुचि नहीं थी, फिर भी कई बार राजसभा में जाते और पिता महाराज सिद्धार्थ के समीप बैठते थे। उनके आगमन से राजसभा सुशोभित हो उठती थी, सभाजन उनके दर्शन से आनन्दित होते और उनकी मधुर वाणी सुनकर मुग्ध हो जाते थे।
एकबार सभाजनों ने महाराजा सिद्धार्थ से प्रार्थना की - हे देव ! आज की राजसभा अद्भुत लग रही है; वीरकुँवर को देखकर मानों अन्तर में रत्नत्रय का उद्यान खिल उठा हो- ऐसी प्रसन्नता हो रही है। उनके श्रीमुख से हम सब आत्मतत्त्व की अचिन्त्य महिमा सुनना चाहते हैं।
महाराजा ने भी प्रसन्नता से उनके प्रस्ताव का समर्थन किया कि वाह ! धर्म चर्चा से उत्तम और क्या होगा ? इतना कहकर उन्होंने वीर कुँवर की ओर दृष्टि डाली और उन्हें बोलने का संकेत किया।
तब अत्यन्त मधुर धीर-गम्भीर वाणी द्वारा वीरकुमार ने चैतन्यतत्त्व की परम अचिन्त्य महिमा समझायी। प्रभु ने क्या कहा? वह हम भी सुनें-अहो! चैतन्यतत्त्व स्वयं आनन्द स्वरूप है; पुद्गलपिण्ड शरीर से चैतन्य आत्मा भिन्न है; वह इन्द्रियों से परे चेतनारूप है और चेतना द्वारा ही उसका स्वसंवेदन होता है; किन्हीं बाह्य चिह्नों से अथवा इन्द्रिय ज्ञान द्वारा उसका ग्रहण (अनुभवन) नहीं हो सकता, इसलिये वह 'अलिंगग्रहण' है।
है चेतना अद्भुत अहो ! निज स्वरुप में वह व्यापती, इन्द्रियों से पार हो निज, आत्म को वह देखती।