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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६६ माता ने कहा – (हँसकर सिर पर हाथ फेरते हुए) 'वह तो मेरा प्यारा पुत्र है।' फिर (गोद में लेकर चुम्बन करते हुए) कहा-बेटा ! वह तो तू ही है कि जिसे अब भव भी नहीं हैं और जिसने अभी मोक्ष प्राप्त भी नहीं किया है।
वीर कुँवर कहते हैं - हे माता ! शुद्धात्मतत्त्व की महिमा कैसी अगाध है, वह तुम जानती हो ? ___ माता – हाँ बेटा ! जब से तू मेरे अन्तर में आया तब से शुद्धात्मतत्त्व की महिमा मैंने जान ली है। ___वीर कुँवर - 'तुमने आत्मा की कैसी महिमा जानी है ? वह मुझे बतलाओ न।'
माता- बेटा ! जब से यहाँ रत्नवृष्टि प्ररम्भ हुई, मुझे १६ स्वप्न दिखाई दिये और मैंने उन स्वप्नों का उत्तम फल जाना, तब से मुझे ऐसा लगा कि अहा! जिसके पुण्य का प्रभाव इतना आश्चर्यकारी है उस आत्मा की पवित्रता का क्या कहना? ऐसा आराधक आत्मा मेरे उदर में विराज रहा है - ऐसी अद्भुत महिमा से आत्मा के आराधक भावों में विशुद्धता वृद्धिंगत हुई और किसी अचिन्त्य आनन्दपूर्वक मुझे शुद्धात्मतत्त्व का भास हुआ। बेटा ! यह सब तेरा ही प्रताप है। ___वीर कुँवर – हे माता! तुम्हें तीर्थंकर की माता बनने का महान सौभाग्य प्राप्त हुआ, तुम जगत की माता कहलाई। चैतन्य की अद्भुत महिमा को जानने वाली हे माता ! तुम भी अवश्य मोक्षगामी हो। ___माता -बेटा वर्द्धमान ! तेरी बात सत्य है। स्वर्ग से तेरा आगमन हुआ तभी से अन्तर एवं बाह्यवैभव वृद्धिंगत होने लगा है; मेरे अन्तर में आनन्द का अपूर्व स्फुरण होने लगा है। तेरे आत्मा का स्पर्श होते ही मेरे आराधक भावों में विशेष वृद्धि होने लगी। अब मैं भी एक भव पश्चात् तेरी भाँति मोक्ष की साधना करूँगी। ___ वीर कुँवर-धन्य हो माता ! मेरी माता को तो ऐसी ही शोभित होना चाहिये, माता ! तुम्हारी बात सुनकर मुझे आनन्द होता है। मैं इसी भव में मोक्ष को साधने हेतु अवतरित हुआ हूँ तो मेरी माता भी ऐसी ही होगी न !
माता-बेटा ! तू तो समस्त जगत को मोक्षमार्ग दर्शानेवाला है; तेरे प्रताप से