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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/६८ से जो सर्वज्ञ होकर जिनशासन के धर्मचक्र का प्रवर्तन करनेवाले हैं - ऐसे श्री वीर प्रभु को चैतन्यभाव से जानो। ___ जो जानता महावीर को चेतनमयी शुद्धभाव से।
वह जानता निज आत्म को सम्यक्त्व लेता चाव से॥ प्रभु की ज्ञानचेतना को जानने से रागरहित सर्वज्ञस्वभावी आत्मा तुम्हारे स्वसंवेदन में आ जायेगा और सम्यक्त्व सहित सर्वज्ञता का सर्व समाधान हो जायेगा; तुम्हारा परिणमन राग से भिन्न ज्ञानचेतनारूप हो जायेगा और तुम स्वयं अल्पकाल में अल्पज्ञ मिटकर सर्व काल के लिये सर्वज्ञ हो जाओगे।
इसप्रकार देवकुमारों तथा राजकुमारों के बीच तत्त्वचर्चा चल रही थी, उससमय राजभवन में (चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को) क्या हो रहा था - वह हम देखें।
वर्द्धमानकुमार ने प्रात:काल सिद्धों का स्मरण करके आत्मचिन्तन किया। फिर माताजी के पास आये। त्रिशला माता ने बड़े उत्साहपूर्वक पंचपरमेष्ठी का स्मरण करके प्रिय पुत्र को तिलक किया और बलैयाँ लेकर मंगल आशीर्वाद दिया। माता का आशीष लेकर वीरकुमार प्रसन्न हुए और उनसे आनन्दपूर्वक चर्चा करने लगे। अहा ! माताजी के साथ वीरं कुँवर कैसी आनन्दप्रद चर्चा करते हैं, वह सुनने के लिये आइए हम राजभवन में चलें....!
. राजभवन में त्रिशला माता और वीरकुमार की मधुर वार्ता
वाह ! देखो, यह राजा सिद्धार्थ का राजभवन कितना भव्य एवं विशाल है, इसका शृंगार भी कितने अद्भुत ढंग से किया गया है ! आज चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को वीरप्रभु का जन्मदिन होने से राजभवन के प्रांगण में हजारों प्रजाजन वीर कुँवर के दर्शनार्थ एकत्रित हुए हैं; आज वे पाँचवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। राजभवन के भीतर उस कक्ष की शोभा तो स्वर्ग की इन्द्रसभा को भी भुला दे - ऐसी है; परन्तु अपना लक्ष्य वहाँ नहीं जाता, अपनी दृष्टि तो सीधी महावीर कुँवर पर केन्द्रित है। अहा ! वे कैसे सुशोभित हो रहे हैं ? त्रिशला माता अपने इकलौते पुत्र को कितना लाड़ कर रही हैं और कुँवर भी माताजी से आनन्दपूर्वक चर्चा कर रहे हैं। चलो, वह हम भी सुनें -
वीर कुँवर ने पूछा- हे माता ! जिन्हें भव नहीं है और जो मोक्ष को भी प्राप्त नहीं हुए, वे कौन हैं?