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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/४६ हे भव्यात्मा! एक भव के पश्चात् तुम भरतक्षेत्र के चौबीसवें तीर्थंकर होकर मोक्षपद प्राप्त करोगे। ___ यह सब सुनकर नन्दराजा को भी अपने पूर्वभवों का जातिस्मरण हुआ; उन्होंने अपने पूर्वभव चित्रपट की भाँति देखे तथा भविष्य की सुन्दर कहानी सुनकर उनका चित्त प्रसन्न हो गया। अहा ! मुमुक्षु को अपने मोक्ष की बात सुनकर चित्त में जो प्रसन्नता होती है, उसका क्या कहना ? हजारों प्रजाजन भी आनन्दविभोर होकर भावी तीर्थंकर की ऐसी महिमा एवं उत्सव करने लगे मानों वर्तमान में ही प्रभु के पंचकल्याणक हो रहे हों। पश्चात् श्री प्रौष्ठिल प्रभु ने नन्द राजा को मुनिदशा की परममहिमा बतलाते हुए कहा – अहा ! आत्मसाधक वीर मुनिवरों के तपश्चरणरूपी रणसंग्राम में पापकर्मरूपी उद्धत शत्रु भी नहीं टिक पाते; शुद्धोपयोग-धनुर्धर उन सन्त को कोई जीत नहीं सकता, जिन्होंने मोहलुटेरे को भगा दिया है और पंचपरमेष्ठी जिनकेमार्गदर्शक हैं ऐसे मोक्षपथिक मुनिवर आत्मा की आराधना के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य में उलझते नहीं हैं, दीन नहीं होते और न राग-द्वेष करते हैं। अहा ! ऐसे मोक्ष साधक मुनिवरों ने क्या मुक्ति को यहीं नहीं बुला लिया है ? चारित्राराधना परमपूज्य है। हे वत्स ! उसे तुम अंगीकार करो।
अहा ! मुनिराज के मुखचन्द्र से मानों वीतरागी अमृत झरता था। उसे झेलते हुए नन्द राजा के नयनों से आनन्द उमड़ने लगा। सम्यक्त्व से अलंकृत उनका आत्मा वैराग्यभावना द्वारा विशेष सुशोभित हो उठा...और तुरन्त ही उन्होंने प्रौष्ठिल आचार्य के निकट जिनदीक्षा अंगीकार कर ली। तुच्छ राजलक्ष्मी को छोड़कर महानरत्नत्रयलक्ष्मी को ममत्वरूपसे धारण किया: बाह्य तथा अन्तर में निर्ग्रन्थरूप से शोभायमान होने लगे। अहा! वीतरागता द्वारा नग्न जीव जैसा सुशोभित होता है, वैसा क्या रागी वस्त्राभूषण द्वारा शोभता है ? नहीं, वीतरागता ही जीव की सच्ची शोभा है। इसीलियेतो मोक्षमार्गी जैन मुनियों को मोहरहित जोनग्नता है, उसे तत्त्वज्ञानियों ने मंगलरूप कहा है। वही मुनियों का सच्चा स्वरूप है । ऐसे यथार्थ स्वरूप में अपने चरित्र नायक श्री नन्द मुनिराज सुशोभित होने लगे।- वन्दन हो उन नन्द मुनिराज को !
श्रीनन्द मुनिराज को विशुद्ध चारित्र के बल से कितनी ही लब्धियों सहित