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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/४८ को प्रगट करता है; तब वह भवदुःख से छूटकर मोक्षसुख प्राप्त करता है। मुनिराज का उपदेश सुनकर नन्दराजा अपना जीवन प्रसन्नतापूर्वक मोक्षसाधना में बिताते थे। उन्हें कोई अशुभ व्यसन तो था नहीं; मात्र एक ही व्यसन था देव-गुरु-धर्म की उपासना का। धर्म के चिन्तन बिना वे एक दिन तो क्या, एक क्षण भी नहीं रह सकते थे।
महाराजा नन्दिवर्धन ने यद्यपि नन्दकुमार को राज्य का कार्यभार सौंप दिया था; तथापि अब जिनके संसार का किनारा निकट आ चुका है - ऐसे नन्दराजा, 'सदननिवासी तदपि उदासी' थे। राज्य एवं रमणियों के बीच रहने पर भी उनकी चेतना उन सबसे पृथक् ही रहती थी। निज-चेतना के सिवा उन्हें अन्यत्र कहीं सुख की कल्पना नहीं होती थी। एकबार महाराजा नन्दिवर्धन आकाश में मेघों की क्षणभंगुरता देखकर संसार से विरक्त हुए और पंचमगति-मोक्ष प्राप्त करने के लिये जिनदीक्षा अंगीकार की; पश्चात् ध्यानचक्र द्वारा कर्मों को नष्ट करके केवलज्ञान एवं मोक्ष पद प्राप्त किया। __ पिता के वियोग से पुत्र ‘नन्दन' यद्यपि शोकाकुल हो गया; परन्तु कायर पुरुष ही शोक के आधीन होकर बैठे रहते हैं। बुद्धिमान धीर पुरुष तो शोक को छोड़कर स्वकार्य को सम्हालते हैं, तदनुसार नन्दराजा ने राज्य का कार्यभार सम्हाल लिया। राज्य और धर्म दोनों के सहयोग पूर्वक कई वर्ष बीत गये। एकबार बसन्त ऋतु का आगमन होते ही वन-उपवन नवीन कोंपलों एवं पुष्पों से खिल उठे; उसी केसाथ-साथ मानों रत्नत्रय-पुष्पों का उद्यान भी खिल गया हो....ऐसे प्रौष्ठिल' नाम के श्रुतकेवली मुनिराज का श्वेतपुरी के उपवन में आगमन हुआ। अहा ! कैसी उनकी अनुपम मुखमुद्रा ! मानों वे चैतन्य की शान्ति में निमग्न हों। शशक जैसे प्राणी आश्चर्य से उनकी ओर देख रहे हैं और उनके चरणों में बैठ गये हैं। ज्ञान के गम्भीर समुद्र, उन मुनिराज को देखकर नन्द राजा को अति आनन्द हुआ....। ___ अहा ! मोक्ष की जीवन्त मूर्ति ! भक्तिपूर्वक वन्दन करके नन्द राजा ने उन श्रुतकेवली से वीतरागता का उपदेश तथा अपने पूर्वभवों की बात सुनी। सर्वावधिज्ञानी एवं चरमशरीरी ऐसे उन श्रुतकेवली भगवान ने उनकी नरकदशा, वासुदेव पदवी, सिंहपर्याय में सम्यक्त्व प्राप्ति, चक्रवर्ती पद आदि पूर्वभवों का वर्णन करके कहा