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'जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/४३ - मुमुक्षु राजा को स्वयं भी चारित्र की भावना तो थी ही; उसमें मुनिराज की प्रेरणा मिलने से उन्हें अत्यन्त उल्लास हुआ। अति वैराग्यपूर्वक हाथ जोड़कर बोला – 'हे प्रभो ! यह जीव संसार में अनन्तबार पंचपरावर्तन कर चुका है, अब उस परावर्तन से बस होओ ! श्रुतज्ञान के सारभूत ऐसी चारित्रदशा को मैं आज ही .अंगीकार करूँगा। ऐसा कहकर राजा ने उसीसमय चारित्रदशा अंगीकार कर ली; मुनि होकर शुद्धोपयोग द्वारा आत्मा को ध्याने लगे। ठीक ही है कि महापुरुष अपने हितकार्य को सिद्ध करने में विलम्ब नहीं करते। कनक' को छोड़कर जिन्होंने सुन्दर रत्न' ग्रहण किये हैं - ऐसे वे मुनिराज कनकध्वज मुनिसंघ में अति सुशोभित होने लगे; वीतरागभाव द्वारा अनेक परिषह सहने लगे। अन्त में चार आराधना के अखण्ड पालनपूर्वक आयु पूर्ण करके आठवे स्वर्ग में गये।
वे धर्मात्मा स्वर्गलोक में भी देवों को आनन्द प्राप्त कराते थे, जिससे देवानन्द' उनका नाम सार्थक था। चौदह सागरोपम के असंख्य वर्षों तक जिनमार्ग के प्रभाव द्वारा असंख्य देवों को आनन्द देकर वे देवानन्द अपनी आत्म-आराधना को आगे बढ़ाने के लिये पुनः मनुष्य लोक में अवतरित हुए। हरिषेण राजा और पश्चात् स्वर्ग में देव (७वाँ और ६वा पूर्वभव)
बन्धुओ ! आप भगवान महावीर के पूर्वभवों का वर्णन पढ़ रहे हैं। अब उनके मात्र सात ही भव शेष हैं - उनमें तीन भव तो देव के हैं और अन्य चार भव उत्तम रत्नत्रय धर्म की आराधना सहित मनुष्य के हैं, जिनमें एक चक्रवर्ती का भव है और एक तीर्थंकर का अवतार है। वीरप्रभु के आत्मा द्वारा की गई उस आराधना को देखकर तुम्हें भी आराधना का उत्साह जागृत होगा और उस आराधना में आत्मा को लगाने से तुम्हें सर्वज्ञ महावीर का साक्षात्कार होगा! सर्वज्ञ महावीर केसाक्षात्कार के साथ ही उनके जैसे अपने परम-आत्मा की स्वानुभूति रूप साक्षात्कार होने पर जो अतीन्द्रिय परम आनन्द होता है, उसका क्या कहना? अहा! वह तोमोक्षसुख की वानगी है और वही मंगल निर्वाण-महोत्सव है।
जो जानता महावीर को, चेतनमयी शुद्धभाव से। वह जानता निज-आत्म को, सम्यक्त्व ले आनन्द से॥