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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/४२ हर्षोल्लासपूर्वक केवलज्ञान का मंगल-उत्सव तथा उन दोनों केवली भगवन्तों की पूजा एवं दिव्यध्वनि का श्रवण करके वह हरिध्वज देव सौधर्म स्वर्ग चला गया। __ जिसके अन्तर में सम्यक्त्वरूपी महान सम्पदा विद्यमान है - ऐसे उस देव का चित्त स्वर्ग की दैवी सम्पदा में भी आकर्षित नहीं होता। बारम्बार स्वर्ग से धरती पर आकर सर्वज्ञ परमात्मा की भक्ति एवं बहुमानपूर्वक शुद्धात्म तत्त्व की बात श्रवण करके अपनी स्वानुभूति को पुष्ट करता है। इसप्रकार भगवान महावीर के जीव ने अखण्ड आत्म-आराधनापूर्वक सौधर्म स्वर्ग में असंख्यवर्ष व्यतीत किये। कनकध्वज राजा और आठवें स्वर्ग में देव (वाँ तथा ७वाँ पूर्वभव)
स्वर्ग से चयकर वह हरिध्वज (सिंहकेतु) देव, विदेहक्षेत्र में कनकप्रभ राजा का पुत्र हुआ; उसका नाम था कनकध्वज । उसके युवा होने पर पिता ने उसे राज्य सौंपकर दीक्षा ले ली।अपने चरित्र नायक राजा कनकध्वज एकबार सुदर्शन वन में यात्रा करने गये।सुन्दर वृक्षों और फल-फूलों से भरे हुए उद्यान की शोभा निहारते हुए आगे बढ़े कि एक बड़ी शिला पर छोटे-से, किन्तु महान तेजस्वी मुनिराज को ध्यान में बैठे देखा।अहा! कितनी अद्भुत थी उनकी मुद्रा ! अन्तरंग अतीन्द्रिय शान्ति की दिव्य झलक उनकी मुद्रा पर दृष्टिगोचर होती थी।राग-द्वेष को नष्ट करके, वीतरागता द्वारा वे सुशोभित हो रहे थे। क्षमाभाव एक क्षण को भी विस्मरण नहीं करते थे। उनके रत्नत्रय के प्रभाव से आस-पास के वृक्ष भी फल एवंपुष्पाच्छादित हो उठे थे।-ऐसे मुनिराज को देखकर कनकध्वज ऐसे प्रसन्न हुए जैसे उन्हें किसी अपूर्व निधान की प्राप्ति हुई हो।
अत्यन्त हर्ष से जिनका रोम-रोम उल्लसित हो रहा है-ऐसे राजा ने मुनिराज के चरणों में नमस्कार किया और अति अनुराग सहित उनके समीप बैठ गये। मुनिराज ने शान्त दृष्टि से राजा को देखा और राजन! धर्मवृद्धि हो!' ऐसे आशीर्वचनों द्वारा उन पर परम अनुग्रह किया। अहा ! धर्मात्मा को देखकर मुनिवर भी प्रसन्न होते हैं ! ___ मुनिराज बोले – हे महाभाग ! तुम सम्यक्त्वरूपी मुकुट से तो अलंकृत हो ही, अब उस पर चारित्ररूपी कलगी चढ़ाओ।