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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/४१ सौधर्म स्वर्ग में सिंहकेतु देव (नौवाँ पूर्वभव – सम्यक्तोपरान्त)
सिंह-पर्याय में सम्यक्त्व प्राप्त करके, सल्लेखनासहित समाधिमरण करके, सौधर्म स्वर्ग में हरिध्वज देवरूप से अवतरित हुए अपने चरित्र नायक को देखते ही स्वर्ग के देव जय-जयकार करने लगे। मंगलवाद्य बजने लगे; देव-देवांगनाओं ने जिनेन्द्र पूजन सहित मंगल उत्सव किया। अहो ! सम्यक्त्व सहित विशुद्धि का फल अद्भुत है ! उस हरिध्वज अथवा सिंहकेतु देव ने अवधिज्ञान द्वारा जान लिया कि मैं पहले सिंह पर्याय में था और दो मुनिराजों ने प्रतिबोध देकर मुझे धर्म प्राप्त कराया; उन्हीं के प्रताप से मैं यहाँ उत्पन्न हुआ हूँ; मुझ पर उनका महान उपकार है। इसप्रकार मुनिराजों के उपकार का चिन्तवन करता हुआ वह देव अत्यन्त भक्तिपूर्वक मुनिवरों के पास आया और कल्पवृक्ष के अचेतन दिव्यपुष्पों द्वारा उनकी पूजा करके बोला – हे प्रभो ! एक मास पूर्व आपने जिस सिंह को प्रतिबोध दिया था मैं वही हूँ; समाधिमरण करके मैं सिंह से सौधर्म स्वर्ग का देव हुआ हूँ और आपके उपकार का स्मरण होने से आपके दर्शन करने आया हूँ। हे प्रभो! आपके प्रसाद से तीनलोक में श्रेष्ठ चूड़ामणि समान सम्यक्त्व प्राप्त करके मैं कृतकृत्य हुआ हूँ....साधुजनों का सत्संग किसे हितकर नहीं होता ? ऐसा कहकर उसने अत्यन्त भक्तिपूर्वक मुनिराज के चरणों की रज अपने मुकुट पर चढ़ायी – मानों कोई अमूल्य निधान चढ़ा रहा हो। ___ एक ओर वह देव, पूजा-भक्ति की विधि सहित मुनिवरों की प्रशंसा कर रहा है, उधर मुनियों का लक्ष्य तो अपने चैतन्य की ओर ही स्थिर है। देव क्या कह रहा है, उसका उन्हें लक्ष्य नहीं है; वे तो निन्दा-प्रशंसा में समताभाव रखकर, शुद्धोपयोग द्वारा चैतन्य के ध्यान में लीन होकर क्षपकश्रेणी पर चढ़ रहे हैं....शीघ्रतापूर्वक एक के बाद एक आठवें, नौवें, दसवें गुणस्थान पर चढ़ते हुए मोहकर्म का नाश कर रहे हैं। अभी वह हरिध्वज देव मुनिवरों के समक्ष खड़ाखड़ा उनकी भक्ति कर ही रहा है कि इतने में उन मुनिवरों ने मोह का सर्वथा क्षय करके, क्षायिकभाव पूर्वक केवलज्ञान प्रगट किया। अहा ! आनन्दमय महान उत्सव हुआ, चारों ओर दिव्यता फैल गई। अपने सामने ही अपने परमगुरुओं को केवलज्ञान होता देखकर हरि' तो परम-आनन्दसहित नाच उठा।...अहो ! सर्वज्ञ परमात्मा का साक्षात्कार होने से हरि को जो आनन्द हुआ उसका क्या कहना ! अत्यन्त