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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/४० के गुणचिन्तन में लगा दिया। उसकी लेश्या और अधिक शुद्ध होने लगी, कषाय परिणाम बिल्कुल शान्त हो गये। ग्रीष्म की अति ऊष्ण वायु से उसका शरीर सूख रहा था, सूर्य की प्रखर किरणें उसे जला रही थीं; तथापि उसके मन में कोई क्लेश नहीं था। ऐसे तीव्र ताप में भी उसने जल का त्याग कर दिया था। अन्तर में चैतन्य का शान्तरस उसके भवताप को शीतल कर रहा था, फिर बाह्य जल की क्या आवश्यकता थी ? 'मैं चलूँगा-फिरूँगा तो वन के जीव मुझे जीवित समझकर भयभीत होंगे' - ऐसा सोचकर वह चलता-फिरता नहीं था। उसे निश्चेष्ट पड़ा देखकर यह सिंह मर गया है' - ऐसा मानकर मदमस्त हाथी उसके अयाल को नोंच डालते थे; तथापि मोक्ष के इच्छुक ऐसे मुमुक्षु-सिंह ने तो सहनशीलता ही धारण कर ली थी। अरे ! जिसकी एक गर्जना से हाथियों की टोली दूर भागती थी, वह हाथियों का शत्रु आज तप-आराधना रूपी टंकार से कर्मरूपी हाथी को दूर भगा रहा था। वाह रे सिंह भाई ! धन्य है तुम्हारी आराधना !
शरीर से भिन्न चैतन्यतत्त्व को जानकर, जिसने शरीर का ममत्व सर्वथा छोड़ दिया है - ऐसे उस सिंहराज ने एक महीने तक धैर्यपूर्वक क्षुधा-तृषा सहन किये; काया के साथ कषाय भी क्षीण हो रही थी; जिनमार्ग की आराधना में उसका उत्साह बढ़ता जा रहा था। अहा ! उस वनराज की शान्त चेष्टाओं से प्रभावित होकर वन के हिरन, खरगोश और बन्दर आदि प्राणी भी निर्भय होकर उसके पास बैठने लगे और उसका आश्चर्यकारी परिवर्तन देखने लगे।
प्रशम-शान्ति की गहरी कन्दरा में रहे हुए उस वनराज को बाह्य उपद्रव कोई बाधा नहीं पहुँचा सके। उसे मरा हुआ मानकर गीदड़ और लोमड़ी जैसे तुच्छ जंगली प्राणी भी उसे नाखूनों से चीर-चीर कर खाने लगे, गिद्ध और कौए भी चोंच मार-मारकर चीथने लगे; तथापि उसने अपनी समाधि भंग नहीं की और न उन प्राणियों को भगाने का प्रयत्न किया। अहा ! क्षमावान जीवों को कौन डिगा सकता है ?
इसप्रकार उज्ज्वल परिणामी और आत्म-आराधना में शौर्यवान - ऐसा वह वनराज सहित शरीर का त्याग करके उसी क्षण सौधर्म स्वर्ग के मनोहर विमान में हरिध्वज (सिंहकेतु) नामक देव हुआ।