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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/३६ मस्तक झुकाने लगा....और मानों भक्ति के जल से उनके पग धोता हो। – इसप्रकार उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। ____ सिंह को प्रतिबोध देने का अपना प्रयोजन पूर्ण हुआ - ऐसा समझकर वे मुनिवर वहाँ से प्रस्थान की तैयारी करने लगे....मधुर दृष्टि से सिंह की ओर देखकर धर्मवृद्धि का आशीर्वाद देकर तथा उसके अयाल पर पींछी फेरकर वे मुनिवर आकाशमार्ग से विहार कर गये।
सिंह अश्रुभीगी आँखों से अत्यन्त प्रेमपूर्वक दूर-दूर तक देखता ही रहा।....अहो ! मुझे भवसमुद्र से पार करने वाले मेरे उपकारी गुरु आकाशमार्ग से चले जा रहे हैं। कुछ देर में मुनिवर अदृश्य हो गये; तथापि मानों अब भी उनका पवित्र हाथ अपने मस्तक पर रखा हो। - इसप्रकार वह उनके गुणचिन्तन में लीन रहा। सिंहराज का जीवन आज पलट गया; मानों उसका आत्मा सम्पूर्ण नवीन बन गया; उसका अन्तर क्रूरता के बदले शान्तरस में सराबोर हुआ; उसकी चेतना परभाव से छूटकर शान्त चैतन्यरस में निमग्न होकर शोभा देने लगी। मुनिराज के जाने से उसका चित्त व्यथित हुआ। अरे ! ऐसे उपकारी सत्पुरुष के विरह में कौन व्यथित नहीं होगा ? अन्त में जिसकी चैतन्य की साधनामय उत्तम चेष्टाएँ हों, ऐसे उस मृगराज ने चैतन्य की अद्भुतता के चिन्तन में अपना चित्त लगाकर, पुन: निर्विकल्प उपयोग द्वारा हृदय से मुनि-वियोग का शोक दूर किया और साथ ही हिंसादि पाँचों पापों को भी दूर भगा दिया। व्रतधारी उत्तम श्रावक होकर उसने अनशन पूर्वक सल्लेखना-व्रत धारण किया और श्री मुनिवरों के पवित्र चरणों से पावन हुई, निर्दोष शिला को तीर्थरूप मानकर उस पर 'सल्लेखना-मरण' रूप समाधि लगाई। ___ पाषाण-शिला पर वह एक ही करवट बैठा रहता और किंचित् भी हलनचलन नहीं करता था। उसने अपने आत्मा को चैतन्यस्वभाव में तथा पंचपरमेष्ठी