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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/३८ वाह ! देखो तो सही, जिसप्रकार मनुष्य के साथ बातें करते हों तदनुसार मुनिराज सिंह के साथ बात कर रहे हैं और महाभाग्यवन्त सिंह भी मनुष्य की भाषा समझ रहा है। अहा ! जिसके सम्बोधन को आकाश से मुनिराज उतरे हों और जिनेश्वर देव की वाणी में जिसके तीर्थंकरत्व की घोषणा हुई हो, उसकी पात्रता का क्या कहना ? वाह रे वाह! वनराज !! अब तो तुम । 'जिनराज' हो-भावी जिनराज
हो।
श्री मुनिवर की बात सुनकर तथा अपनी आयु अब मात्र एक मास शेष जानकर सिंह को परम वैराग्य हुआ। बोधिलाभ का जिसे महान आनन्द है और संसार से जिसका चित्त सर्वथा विरक्त हुआ है – ऐसे उस सिंह ने साधकभाव का शौर्य जागृत किया; मुनिवरों के समक्ष उसने बोधिसहित समाधि सल्लेखना धारण की; आहार-जल का सर्वथा त्याग करके सल्लेखना धारण की; आहार-जल का सर्वथा त्याग करके अनशनव्रत अंगीकार किया। __वाह रे सिंह ! तुम्हारा सच्चा शौर्य जागृत हो उठा। (पाठक आत्माओ ! क्षणभर पहले जो क्रूर मांसाहारी सिंह था वह कुछ ही समय पश्चात् चैतन्य की आराधना का शौर्य प्रगट करके कैसा शान्त हो गया है, उसका वर्णन पढ़ते हुए भी हमें उसके प्रति प्रेम उमड़ता है। हम सबके आत्मा (स्वभाव) में भी चैतन्य का ऐसा शौर्य विद्यमान है: सिंह समान वीर बनकर उस शौर्य को जागृत करो। महावीर का मार्ग वह चैतन्य के शौर्य का मार्ग है; उस मार्ग की साधना हेतु वीर बनो....महान वीर बनो।)
प्रशमरस में रत हुआ सम्यग्दृष्टि सिंह विचारता है कि अहा ! मुझे प्रतिबोध देने हेतु ही यह मुनिराज करुणा करके यहाँ पधारे हैं; मुझ पर अचिन्त्य उपकार किया है। मेरे पास तो ऐसा कुछ नहीं है कि मैं इनकी सेवा करूँ, मेरी यह पर्याय ऐसी नहीं है कि मैं उन्हें आहारदान दे सकूँ । मुनिवर तो अत्यन्त नि:स्पृह होते हैं। इसप्रकार उपकार का चिन्तवन करता हुआ सिंह बारम्बार मुनिवरों के चरणों में