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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६ / ३७
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वाह रे सिंह ! तुझे भी ऐसी भक्ति करना आ गया ! 'यह तो अन्तर में हुए सम्यक्त्व का प्रताप है ।' अहो ! उस सिंह की भक्ति-चेष्टा ही उसके सम्यक्त्व प्राप्ति के परम उल्लास को प्रगट कर रही थी । अन्तर में उसने अनुभव किया कि अहा यह क्रोध तथा यह सिंहपर्याय मैं नहीं हूँ; मैं तो सदा उनसे भिन्न, ज्ञान-दर्शनआनन्द स्वरूप हूँ । अरे रे ! यह हिंसा और यह मांस भक्षण मुझे शोभा नहीं देता । मेरा चेतनतत्त्व तो सुन्दर, शान्त स्वरूप है । सम्यग्दर्शनरूप अति गहरी चैतन्यकन्दरा में जाकर, उपशान्तभावरूप तीक्ष्ण पंजों से मैंने मिथ्यात्व एवं कषायों रूप मदोन्मत्त हाथी को मार दिया है; अब विशेष शुद्धोपयोग की दूसरी छलाँग लगाकर मैं संयम के पर्वत पर चढ़ जाऊँ, उसी में मेरा सच्चा शौर्य, शार्दूलपना है । वाह ! श्री मुनिराज के श्रीमुख से झरते हुए जिनवचन समान उपकारी इस संसार में दूसरा कोई नहीं है। जिसका कभी बदला नहीं दिया जा सके - ऐसा महान उपकार सम्यक्त्व देकर इन मुनिवरों ने मुझ पर किया है। - ऐसा सोचकर अगले पैरोंरूपी पंजों द्वारा बारम्बार हाथ जोड़कर नतमस्तक हो, वह मुनिवरों को नमस्कार करने लगा; उसका चित्त अति प्रशान्त हो गया; उसे संसार से निर्वेद और मोक्षमार्ग के प्रति संवेग हुआ।
श्री मुनिराज ने पुन: कहा- हे सिंहराज ! हे धर्मात्मा ! अपूर्वभाव से सम्यग्दर्शन प्राप्त करके अब तुम परमशान्त भाव द्वारा क्रोध - मान-माया-लोभ का भी निवारण करना; उपसर्ग या परिषहों से डरे बिना उन्हें शूरवीरता से सहन करना । वीतरागी पंच परमगुरुओं को सदा हृदय में रखकर उनकी महिमा करना। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के प्रताप से तुम्हारे पाप कर्म नष्ट हुए हैं तथा प्रशम-संवेग, आस्तिक्य और अनुकम्पा के विशुद्ध परिणामों से तुम्हारा आत्मा उज्ज्वल बना है। अनादि से कर्म के आस्रव-बन्ध में वर्तते हुए तुम्हारे आत्मा को अब कर्मों के संवर-निर्जरा प्रारम्भ हुए हैं । अहा ! मोक्ष के मार्ग में आकर तुम धन्य हुए हो; अब निरन्तर ऐसा सुन्दर जीवन जीना; ताकि तुम्हारे अन्तर की विशुद्धता वर्धमान होती रहे। हे भव्य शार्दूल ! अब तुम्हारी आयु मात्र एक मास शेष है। आनेवाले दसवें भव में तुम भारतवर्ष में जगदोद्धारक जिनेश्वर महावीर बनोगे । यह बात हमने 'कमलाधर' (लक्ष्मीधर, श्रीधर अथवा सीमन्धर) जिनेन्द्र के श्रीमुख से सुनी है । इसप्रकार मुनिवरों ने अत्यन्त वात्सल्य से सिंह को सम्बोधन किया ।