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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/३१ सातवें नरक के घोर दुःख पाये। यह जानकर हे भव्यजीवो! तुम विषय-कषाय से विरक्त होकर वीतरागी चारित्र की आराधना करो!....अरे ! जीव के परिणामों की विचित्रता तो देखो ! कि वही जीव पुनः नरक से निकलकर वर्तमान में मोक्ष में विराजमान है और हम उसे भगवान महावीर' रूप में पूजते हैं।
पूर्वभव : सिंह होकर नरक में और पुन: सिंह सातवें नरक में एक नारकी ने आकर भाले से उसकी आँखें छेद डालीं; वह दुःख से चीत्कार करता कि उससे पूर्व ही एकसाथ कितने ही नारकियों ने उसके शरीर में भाले घोंप दिये; वह गिरा कि उसे उठाकर उबलते हुए लाल रस में डालकर गला दिया। अरे ! उसके करोड़ों दु:खों का कौन वर्णन कर सकता है ?
बड़ी कठिनाई से छूटकर वह नारकी जीव (भावी तीर्थंकर) शान्ति की इच्छा से एक वृक्ष (सेमर वृक्ष) के नीचे गया; किन्तु तुरन्त ही ऊपर से तीक्ष्ण असिधारा वाले पत्ते उस पर पड़ने लगे और उसके हाथ-पैर आदि सर्व अंग कटकर छिन्नभिन्न होकर इधर-उधर बिखर गये। अरे रे ! मर जाऊँ तो यहाँ से छु – ऐसा उसे लगा; किन्तु नरक में मृत्यु भी माँगने से नहीं मिलती। अरे रे ! पापी को शान्ति कैसी ? एक क्षण मात्र कहीं चैन नहीं है ! - इसप्रकार भयंकर मरण वेदनाएँ सहतेसहते उस जीव ने असंख्यात वर्ष बिताये। ___ऐसे नरक के तीव्र दुःख भोगकर वह अर्धचक्री का जीव इस भरतक्षेत्र के विपुलसिंह नामक पर्वत पर क्रूरपरिणामी सिंह हुआ; अनन्तानुबन्धी कषायसहित रौद्रध्यान से रंजित उसका मन शान्ति रहित था। भूखा न हो, तब भी बिना कारण वह अनेक निर्दोष जीवों का घात कर देता था। इसप्रकार जिसके रौद्र भावों का प्रवाह कभी रुका नहीं है - ऐसा वह निर्दय सिंह वहाँ से मरकर पुन: नरक में गया
और फिर असंख्यात वर्षों तक उसने वहाँ के तीव्र-असह्य दुःख भोगे। उन दुःखों का कथन कैसे हो ? और कैसे सहे जायें ? वह तो भोगनेवाला ही भोगे और भगवान ही जाने।
ऐसे मिथ्यात्व-कषाय के दु:खों से अब बस होओ!....बस होओ ! जिनका वेदन अब इस जीव को तो कभी नहीं करना है; परन्तु जिन दुःखों का वर्णन पढ़ते