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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/२६ ही बैरभाव को भूल जाते थे। घायल शत्रु पर कोई भी पुनः प्रहार नहीं करते थे,
अपितु उसे आश्वासन देते थे। ऐसे विभिन्न दृश्य युद्ध भूमि में दिखायी देते थे। ___विजय और त्रिपृष्ठ द्वारा अपने कितने ही शूरवीर विद्याधरों का नाश होते देखकर अश्वग्रीव ने चक्र हाथ में लेकर गर्जना की; तब भावी महावीर ऐसे त्रिपृष्ठ ने निर्भयरूप से कहा -रे अश्वग्रीव ! तेरी गर्जना व्यर्थ है; जंगली हाथी की गर्जना से हिरन डरते हैं, सिंह नहीं; कुम्हार के चाक जैसे तेरे इस चक्र से मैं नहीं डरता....चला अपने चक्र को। ____ अन्त में, अत्यन्त क्रोधित होकर अश्वग्रीव ने वह चक्र त्रिपृष्ठ पर फेंका....मानों चक्र के बहाने उसने अपना पुण्य ही फेंक दिया। भयंकर ज्वालाएँ छोड़ता एवं अत्यन्त गर्जना करता हुआ वह चक्र तीव्रगति से चला। दोनों ओर की सेनाओं में भयंकर हाहाकार मच गया। प्रथम तो जिसने अश्वग्रीव के पुण्य का ही छेदन कर दिया है ऐसा वह चक्र आश्चर्यपूर्वक त्रिपृष्ठ के दाएँ हाथ पर आया; उसकी ज्वालाएँ शान्त हो गईं, गर्जनाएँ रुक गईं और वह त्रिपृष्ठ के आदेश की प्रतीक्षा करने लगा। तुरन्त वही चक्र क्रोधावेश में त्रिपृष्ठ ने अश्वग्रीव पर फेंका। (रे महात्मा ! यह हिंसक चक्र तुम्हारे हाथ में शोभा नहीं देता; अब तुम धर्मचक्र के प्रवर्तक बनने वाले हो। तुम्हारा चक्र जीवों को मारने वाला नहीं, किन्तु तारनेवाला होगा।)
क्रोधपूर्वक त्रिपृष्ठ द्वारा छोड़े हुए उस चक्र ने अश्वग्रीव की ग्रीवा को छेद दिया और वे भरतक्षेत्र के प्रथम वासुदेव के रूप में प्रसिद्ध हुए। त्रिखण्ड का राज्य एवं अपार विभूति होने पर भी सम्यक्त्व रहित वह जीव किंचित् सुखी नहीं था। भोग सामग्री में तल्लीन ऐसा वह जीव दानादि धर्म को नहीं जानता था और सदा अति आरम्भ-परिग्रह में डूबा रहता था। अरे ! विषय समुद्र को पार करने हेतु नौका समान जो जैनशासन है, वह तो आत्मा में ही शान्तिरूप शाश्वत सुख बतलाकर विषयों से सुखबुद्धि छुड़ाता है, तो ऐसा ‘वीर-शासन' प्राप्त करके 'त्रिपृष्ठ जैसी मूर्खता' कौन करेगा ? और विषयों की आग में कौन जलेगा? जिनोक्त धर्म की अवहेलना करके जो विषयों में लुब्ध होता है, वह मूर्ख प्राणी हाथ में आये हुए अमृत को छोड़कर विषपान करता है। राग का नाश होने से आत्मा को जिस स्वाभाविक शान्तिरूप परमसुख की प्राप्ति होती है - क्या