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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/२८ द्वारा मोह को नष्ट करने हेतु तत्पर होते हैं, तदनुसार शूरवीर योद्धा शत्रु का घात करने हेतु तत्पर हो गये। सामने शत्रुखड़े होने पर भी वे कुशल योद्धा गम्भीर एवं शान्त दिखाई देते थे; क्योंकि कुशल पुरुष आकुलता का प्रसंग आने पर भी व्याकुल नहीं हो जाते....अथवा मोहशत्रु का हनन करने में तत्पर हुआ शूरवीर साधक स्वयं शान्त रहकर ही मोह को नष्ट कर देता है। जिसप्रकार गुरु उत्तम शिष्य को आत्मसाधना हेतु प्रोत्साहित करते हैं, उसीप्रकार राजा अपने सेनापतियों को प्रशंसा द्वारा युद्ध के लिये उत्साहित कर रहे थे। जब राज सेवक बलदेव-वासुदेव के लिये कवच लाये तब अपनी शूरवीरता के अभिमान से उन्होंने उसे पहिनने से इन्कार किया कि ‘शूरवीर को अपनी रक्षा के लिए किसी अन्य के रक्षण की क्या
आवश्यकता है?' शुद्धोपयोग के सामर्थ्य से स्वयंभू-सर्वज्ञ होने वाले अरिहन्तों को किसी अन्य साधन की आवश्यकता कहाँ होती है ?
त्रिपृष्ठ का पराक्रम अद्भुत था। जिसप्रकार सम्यक्त्व हेतु तत्पर मुमुक्षु योद्धा विशुद्धि के प्रहार द्वारा मिथ्यात्व शत्रु के तीन टुकड़े कर देता है, तदनुसार त्रिपृष्ठ ने प्रथम प्रहार में ही शत्रुसेना को तीन भागों में विभक्त कर दिया। जिसप्रकार आत्मसाधना हेतु कटिबद्ध हुए, शूरवीर साधक शरीर की परवाह नहीं करते, उसीप्रकार विजय के लिये उन्मत्त योद्धा चारों ओर शस्त्र से विंधे हुए शरीर की परवाह नहीं करते हैं। अरे, खेद है कि वे योद्धा क्रोधावेश में इसप्रकार निर्भयरूप से शरीर को तो छोड़ देते थे; परन्तु शरीर से भिन्न आत्मा का भेदज्ञान करने में अपनी शक्ति नहीं लगाते थे। जितनी शक्ति वे युद्ध में लगा रहे थे, उतनी आत्मसाधना में लगाते तो कितना अपूर्व लाभ होता! ___ 'युद्ध में जिनके साथ कोई वैर न हो ऐसे हाथी, घोड़े तथा सैनिकों को भी
अरे ! मात्र अपने स्वामी की प्रसन्नता के लिये मरना पड़ता है। धिक्कार है ऐसी पराधीन चाकरी को !' ऐसा विचार कर अनेक योद्धाओं ने इस युद्ध के बाद तुरन्त चाकरी छोड़ने का निर्णय कर लिया था। जिन्हें हिंसा नहीं रुचती थी - ऐसे अनेक जीवों का चित्त युद्ध से उदास होने पर भी वे युद्ध कर रहे थे। कोई योद्धा युद्ध भूमि में घायल होकर मरने की तैयारी में हो; तब घायल करनेवाला योद्धा स्वयं ही उसे पानी पिलाता था और पंचपरमेष्ठी का नाम सुनाता था। इसप्रकार वे युद्ध भूमि में